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: ३५७ : समाज-सुधार में सन्त-परम्परा
|| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
उठाने में भरसक प्रयत्न किया। भीलों व आदिवासियों की झोपड़ी के सामने विराज उन्हें कुप्रवृत्तियों के बारे में समझाना, उनसे मुक्ति दिलाना आपके लिए आसान था। कितने ही हिंसक कृत्य करने वालों ने हिंसा का त्याग किया, कई लोगों ने शराब, मांस, गांजा भांग तथा नशीली वस्तुओं का त्याग किया। आपने दलित वर्ग के बीच जाकर उन्हें सद्प्रेरणा दी, उन्हें शिक्षा का महत्त्व समझाया और भोज्य-अभोज्य वस्तुओं के महत्त्व को समझाया।
धर्म को सच्चा स्वरूप पददलितों, पतितों का उद्धार करना होता है। सच्चे साधु-सन्त ही जन-साधारण के मन-मस्तिष्क में ऐसे धर्म के महत्त्व को प्रवेश कराते हैं। जैन श्रमण की दृष्टि से सभी समान है-"समयाए समणों होई।" इस दृष्टि से सभी को समान रूप से आत्म-कल्याण की ओर प्रेरित करना धर्म का और धर्म विश्वास करने वाले साधु-सन्तों का परम दायित्व होता है । धर्म-श्रवण की सबसे अधिक आवश्यकता पतितों को ही होती है।
इसी भावना से सन्त दिवाकरजी महाराज ने झोंपड़ी से महलों तक अपने उपदेश को स्वयं ने पहुँचाया। आपने दीन-हीन, पद-दलितों, उपेक्षित, असभ्य, वनवासियों, भीलों, जैन-अजैन सभी को उद्बोधित किया और मानवीय दृष्टिकोण उनमें पैदा किया।
गांधीजी ने हरिजन उद्धार का कार्य अपने हाथ में लिया और वर्तमान राजस्थान सरकार 'अन्त्योदय' के रूप में पतितों का, पद-दलितों के उद्धार का कार्य कर रही है। उसे सन्त दिवाकर जी महाराज ने अपने जीवन के प्रारम्भिक चरणों के आयामों में ही ले लिया और बड़ी लगन से उन्हें सम्पन्न किये।
अस्पृश्यता भारतीय समाज का कोढ़ है। वर्तमान सरकार ने इसके उन्मूलनार्थ कानून बनाये हैं। परन्तु साधु-सन्तों ने इस कार्य को हृदय परिवर्तन करके किया है। जैन दिवाकरजी महाराज ने मानव-समाज में व्याप्त इस कोढ़ का अपने सद् एवं बोधगम्य वाणी से निदान किया। निस्संदेह सन्त दिवाकरजी महाराज एक आत्मधर्मी, राष्ट्रधर्मी एवं समाजधर्मी सन्त थे। तत्कालीन राजतन्त्र पर उनका प्रमाव था ही, परन्तु वर्तमान सरकार की नीति की तह में भी अपरोक्ष रूप से सन्त दिवाकरजी महाराज का नशीली वस्तुओं से परहेज के सिद्धान्त पर “पूर्ण नशाबन्दी" की योजना इसका प्रतीक है।
सन्त-परम्परा में स्थान सन्त सदा-सदा वन्दनीय और स्मरणीय होते हैं क्योंकि मोह-माया और वासना से परिपूर्ण जगत में जन्म लेकर भी वे अपनी निस्पृहता-तेजस्विता और लोक-मंगलकारिणी वत्ति के कारण हजारों प्राणियों का कल्मष धोकर उन्हें पवित्र आत्म-साधना की ओर प्रेरित करता है । भारत में श्रमण सन्तों की भी अविच्छिन्न-परम्परा रही है। भारतीय संस्कृति और भारतीय जीवन का प्रमुख आधार धर्म रहा है। यही इस देश की विशेषता है। भारतीय संस्कृति की अखण्डता, पवित्रता और इसके पावन रूप को सन्तों, साधओं और श्रमणों ने प्रवहमान रखा है। भारत की पावन धरा पर सन्तों का, साधुओं का चक्रवर्ती सम्राटों से भी बढ़कर सम्मान किया गया है। चक्रवर्ती सम्राटों ने या यों कहें कि लोक-शासकों ने लोकनायक के समक्ष-अहंकार ने निरहंकार के समक्ष अपना सिर झुकाया है । लोक-शासक जनता के शरीर पर तलवार के बल पर शासन करता है, किन्तु लोक-नायक जनता के शरीर और मन पर एक साथ शासन करता है और वो भी दया-सहानुभूति एवं प्रेम के बल पर । इसीलिए लोक-शासक की स्मृतियाँ चिरस्थायी नहीं होतीं। जबकि लोकनायक अपने जीवन काल में और मरणोपरान्त युग-युगों तक याद किया जाता है।
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