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: ३३६ : पीड़ित मानवता के मसीहा
| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-न्य
पीड़ित मानवता के मसीहा श्री जैन दिवाकरजी
- श्री राजीव प्रचंडिया बी० ए०, एल-एल० बी०
(अलीगढ़) भारतवर्ष सन्तों का देश है। सन्त-परम्परा अर्वाचीन नहीं है। इस परम्परा का आदिम रूप प्राचीन ऐतिहासिक स्रोतों में आज भी सुरक्षित है। संतों की वाणी गंगाजल की तरह पवित्र तथा जल प्रवाह की भाँति गत्यात्मक है। ठहराव का परिणाम गंदगी तज्जन्य दुर्गन्ध है जबकि बहाव में सातत्य गति तथा निर्मलता है । मनुष्य को मनुष्य की भूमिका में वापिस ले आते हैं वे वस्तुतः सन्त कहलाते हैं। सन्त व्यक्ति को अज्ञान से ज्ञान के धरातल पर ले जाने में सक्षम होता है। प्रश्न है-ज्ञान क्या ? "ज्ञायते अनेन् इति ज्ञान" अर्थात् जिससे जाना जाय वह ज्ञान है । प्रत्येक क्षण में ज्ञान विद्यमान रहता है और ज्ञान को जानने वाला व्यक्ति सचमुच ज्ञानी कहलाता है, पंडित कहलाता है । आचारांगसूत्र के अनुसार-'खणं जाणाई पंडिए' अर्थात् जो क्षण को जानता है, वह पंडित है, सन्त है और महान् है।
सन्त-परम्परा में जैन सन्त का अपना अलग स्थान है। उनकी दैनिकचर्या दूसरे सन्तों से सर्वथा भिन्न है। उनकी अपनी एक जीवन शैली है। इसी से ये जन-जन में समाहत हैं। जैन सन्त सदैव पद-यात्री होते हैं। वर्षाऋतु के चार महीने एक स्थान पर जिसे चातुर्मास या वर्षावास कहा जाता है । इस अवधि में उनके तत्त्वावधान में धर्म की प्रभावना हुआ करती है । ये मूलतः अपरिग्रही और गुणों के उपासक होते हैं। उनके सदाचरण से समाज में सत्य अहिंसा जैसे उदात्त गुणों का संचार हुआ करता है। फलस्वरूप-पाँच पाप-काम, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि से सामाजिक विशुद्ध रहता है।
श्रमण-परम्परा अर्थात् जैन-परम्परा की सन्त शृखला में जैन दिवाकर पूज्य श्री चौथमल जी महाराज का स्थान शीर्षस्थ है। तर्कणा-शक्ति के मनीषी मधुकर मुनि जी महाराज के शब्दों में-"जैन दिवाकरजी महाराज सच्चे वक्ता थे, वाग्मी थे।" उनकी कथनी और करनी एक रूपा थी, अस्तु उनकी वाणी में बल था, प्रभाव था और था ओज । गीता में स्पष्ट लिखा है कि "जीवन के सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने की जो कला या युक्ति है, उसी को योग कहते हैं।" श्री जैन दिवाकरजी महाराज इस बात से सुपरिचित थे । वे योग-विद्या में पारंगत थे । वे 'यथा नाम तथा गुण' थे। वे सचमुच बे-नजीर थे। समभावी थे, सम्यगदृष्टि जीव थे। श्री देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री के शब्दों में, "वे कैची नहीं, सुई थे, जिनमें चुभन थी, किन्तु दो दिलों को जोड़ने की अपूर्व क्षमता थी।" समाज को संकीर्णता से अकीर्णता की ओर ले जाने में सचमुच जगद्वल्लभ जन दिवाकर जी महाराज ने अपना सारा जीवन खपा दिया है । वे अपने लिए नहीं, सदैव दूसरों के लिए जिए। वे सचमुच दिवाकर थे। सूर्य की रश्मियाँ संसार को प्रतिदिन एक नया जीवन देती हैं, स्फूर्ति उत्पन्न करती हैं उसी प्रकार जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज ने समाज को एक नई चेतना दी है, जागृति दी है।
समाज का यदि विस्तार से अध्ययन किया जाय तो समाज को मूलतः दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। एक तो उच्चस्तरीय समाज और दूसरा निम्नस्तरीय समाज । उच्च समाज से
१-तीर्थङ्कर, सम्पादक-डॉ० नेमीचन्द्र, नवम्बर-दिसम्बर ७७, पृष्ठ ७।
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