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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें ३४०
तात्पर्य है सवर्णजाति का समुदाय और निम्नस्तरीय जाति से अभिप्राय है निम्न वर्ण का वर्ग, अन्त्यज समाज अर्थात् भील, आदिवासी, हरिजन, चमार, मोची, कलाल, खटीक, वेश्याएं आदि का वर्ग जब उच्च समाज गर्त की ओर जाने लगता है, धर्म से विमुख हो जाता है, हिंसा, मांस, मद्यसेवन, दुराचार आदि दुर्व्यसनों में फँस जाता है, तब वह सहज ही पतित समाज की संज्ञा पा जाता है। दोनों समाजों के उत्कर्ष के लिए श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने स्थान-स्थान पर जाकर दिव्य-देशना दी, उन्हें अपने अस्तित्व का बोध कराया । जो कार्य राजनीतिक दल करने में प्रायः असफल रहे हैं, वह कार्य जैन दिवाकरजी महाराज ने अपनी वाक्पटुता से अपने चारित्र्य से अन्त्यज तथा पतित दोनों समाजों को सुधारने का प्रशंसनीय प्रयास किया और वे उसमें काफी सीमा तक सफल हुए। वास्तव में ये सच्चे समाज सुधारक थे, अन्त्योद्धारक तथा पतितोद्धारक थे। पूज्य दिवाकरजी महाराज एक में अनेक थे । अद्भुत थे ।
वाणी के जादूगर श्री जैन दिवाकरजी महाराज मानव हृदय के पक्के पारखी थे । करुणा और दया से उनका हृदय सदा आप्लावित रहता था। तभी तो भीलों के हृदय में महाराजश्री के वक्तव्य को सुनकर व्याप्त हिंसा की भावना अहिंसा में परिवर्तित हो गई। मांस-मदिरा आदि पाँच मकारों को चोरी, डकैती, हत्या, परस्त्री अपहरण आदि को त्यागना भीलों ने सहर्ष स्वीकार किया । राजस्थान में स्थित नाई गाँव में मील जाति ने महाराजश्री से निवेदन किया- "महाराज श्री ! हम लोग हिंसा-त्याग की प्रतिज्ञा लेने को तत्पर हैं, किन्तु हमारी विनय है कि यहाँ के महाजन भी न्यूनाधिक तोलने की प्रवृत्ति का त्याग करें।"
महाजनों ने भी बात स्वीकार की। महाराज श्री के सत्संग और वाणी की प्रभावना से तरक्षेत्रीय भील समूह में जीवन्त परिवर्तन हुए ।
यह कथन अपने में सत्य है कि 'वाणी चरित्र की प्रतिध्वनि होती है' जैसा चारित्र्य होता है व्यक्ति में वैसी ही उसकी वाणी मुखरित होती है, जो प्रभावशाली, जन-कल्याणकारी होती है। ऐसी ही कुछ बातें श्री जैन दिवाकरजी महाराज में देखने को मिलती है। जो वे कहते हैं, करते
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है अस्तु, उनका प्रभाव जन-जन में पढ़ता है, तभी तो अपने वक्तव्य से लगभग ४०० से अधिक खटीकों सके । आपने मदिरा के दुर्गुणों को इस प्रकार से
मध्य प्रदेश के अन्तर्गत पिपलिया गांव में को मदिरा का त्याग कराने में आप सफल हो बताया कि व्याख्यान सभा में उपस्थित खटीक समुदाय ने उसी समय शराब न पीने का दृढ़ संकल्प किया। वस्तुतः यह बड़ी बात है।
नारी का अनमोल गहना उसका शील होता है । दोहापाहुड में स्पष्ट कहा है--' शीलं मोक्खस्स सोवाणं' - अर्थात शील ही मोक्ष का सोपान है । शील के अभाव में कोई भी नारी पनप नहीं सकती है। उसका विकास नहीं हो सकता है। नारी का नारीत्व शील संयम पर निर्भर करता है। समाज का अपकर्ष और उत्कर्ष नारी पर निर्भर है; क्योंकि नारी समाज का एक अभिन्न अंग है। पतित नारी अथवा वेश्या समुदाय, समाज को रसातल पर ले जाती है। वस्तुतः ऐसी नारी का जीवन भोग का जीवन होता है, योग का नहीं उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता है, वह दूसरों के संकेत पर कठपुतली की भाँति अपना जीवनयापन
करती है । अस्तु वेश्याओं को समाप्त
१ जैन दिवाकर कविरत्न श्री केवलमुनि, पृष्ठ १६१ । २ जैन दिवाकर, श्री केवलमुनि, पृष्ठ १६४ ।
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