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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
भोग किए बिना प्राप्त सामग्री का परित्याग कर स्वर्ग पाने की अभिलाया में तुम भटक रहे हो, वास्तव में 'तुम गलत मार्ग का अनुसरण कर रहे हो मित्रता के नाते हमारी तो सीधी व साफ राय है कि तुम दीक्षा लेने का विचार त्याग दो ।"
: ३३७ : श्रमण परम्परा में ज्योतिर्मय व्यक्तित्व
इसके प्रत्युत्तर में वैराग्योन्मुखी श्री चौथमलजी ने कहा- "मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि जब धर्माचरण को गलत मान लिया जाता है, तो बताइये श्रेष्ठ मार्ग फिर कौन-सा है ? क्या व्यसन दुराचरण, लूट-खसोट, छल-कपट, धोखाधड़ी बेईमानी का मार्ग अपनाना अच्छा है ? आपकी दृष्टि में साधु बनकर 'स्व-पर' का कल्याण करना बुरा है, तो क्या मैं दुराचारी, लंपटी, झूठा और ठग बन कर जीऊँ ? ब्रह्मचारी और परमार्थी बनकर जीने की अपेक्षा आपकी दृष्टि में संसार की वृद्धि और स्वार्थ का पोषण करना अधिक अच्छा है । मेरी समझ में आप लोगों को अपने विचारों की शुद्धि करनी चाहिए। ऐसे मलिन विचारों के लिए मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं है ।"
ग्यानन्दी आत्म-साघनोन्मुख श्री चौथमलजी के मुख से इस प्रकार स्पष्ट उत्तर सुनकर बे सभी लोग निरुत्तर हो गये और भीगी बिल्ली की तरह वहां से खिसक लिए।
इस प्रकार वे श्रामण्य पथ की ओर उन्मुख और कालान्तर में उस पर अग्रसर हुए । यद्यपि असाधारण विलक्षण प्रतिभा तो उनमें प्रारम्भ से ही विद्यमान थी, सुप्रसिद्ध संत श्री हीरालालजी महाराज साहब का शिष्यत्व स्वीकार कर श्रमण धर्म को अंगीकार करने एवं सक्रिय आत्म-साधनापूर्वक स्व तथा पर कल्याण के प्रति अपना जीवन सदा-सर्वदा के लिए अर्पित करने के उपरान्त उस प्रतिमा में और अधिक असाधारणता एवं विलक्षणता उत्पन्न हो गयी। आपका तेजस्वी व्यक्तित्व और भी अधिक प्रखर हो गया और आपका सन्देश जन-जन तक पहुँचकर उन्हें सन्मार्ग पर अग्रसर करने लगा। उन्होंने वस्तुतः धर्म के मर्म को समझा और उसे सर्वजन सुलभ कराया। आज के युग में जबकि लोगों को धार्मिक उपदेशों से अरुचि होती है, आपके उपदेशों में इतना तीव्राकर्षण होता या कि सहस्रों लोग अनायास ही सिचे चले आते थे। आपके उपदेश इतने सुरुचिपूर्ण, सारगर्भित और मानस को आन्दोलित करने वाले होते थे कि सुदीर्घकाल तक उनकी छाप मानस पटल पर अंकित रहती थी। ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिले हैं जो आपके उपदेशों की प्रभावकारिता को सुस्पष्ट करते हैं। व्यसनरत कुमार्गगामी और भ्रष्ट आचरण वाले अनेक व्यक्ति आपके प्रभावपूर्ण सदुपदेशों से प्रभावित हुए। आपके उपदेशों ने उन लोगों को ऐसा प्रभावित किया कि सहज ही उनका हृदय परिवर्तन हो गया और आजीवन उन्होंने सदाचरण की प्रतिज्ञा ली। शराबियों ने शराब छोड़ी, जुआरियों ने जुआ खेलना छोड़ा, डाकुओं ने अपने कार्यों पर पश्चाताप किया। इस प्रकार हृदय परिवर्तन की अनेक घटनाओं के उदाहरण हमारे सामने हैं ।
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श्री जैन दिवाकरजी महाराज स्थानकवासी थे और स्थानकवासी समाज में उनकी लोकप्रियता अद्वितीय थी। तथापि यह एक निर्विवाद तथ्य है कि वे समताभाव की एक जाग्रत मूर्ति और समन्वयवादी महान् सम्त थे। यह सच है कि उनकी दीक्षा स्थानकवासी संघ में हुई थी, किन्तु उनका कार्यक्षेत्र केवल स्थानकवासी समाज तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु सम्पूर्ण जैन समाज को उन्होंने अपने आह्वान और सन्देश का लक्ष्य बनाया। वे एक उदार दृष्टिकोण के सरल स्वभावी उदात्तचेता साधु थे । यह उनके समन्वयवादी दृष्टिकोण का ही परिणाम था कि लगभग २७ वर्ष पूर्व कोटा (राजस्थान) में भिन्न-भिन्न विचारधारा एवं सम्प्रदाय के साधु मुनिराज एक ही मंच पर
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