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: ३२७ : सामाजिक समता के स्वप्न दृष्टा
श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
"मनुष्य को धर्म मत-मतान्तरों के विवाद में न फँसकर कर्तव्य पालन की ओर लक्ष्य रखना
चाहिए। धर्म का उच्च आदर्श तो आत्मोन्नति एवं लोकसेवा है ।"
"दीन-दुखियों का दुःख निवारण करना बहुत बड़ा धर्म है।"
"धर्म की आड़ लेकर द्वेष करना अपने धर्म को बदनाम करना है ।"
- दिवाकर दिव्य ज्योति भा०११, पृ० १७ "धर्म के विशाल प्रांगण में किसी भी प्रकार की संकीर्णता व मिश्रता को अवकाश
नहीं है।"
- तीर्थंकर चौ० ज० अंक २६
- धर्मं उसी का है जो उसका आचरण करता है ।
-दि० दि० भा० १३, पृ० १२ - धर्म वस्तु का स्वभाव है और वह किसी जाति, प्रान्त, देश या वर्ग का नहीं होता । - वि० दि० मा० १८, पृ० १८५
कितनी स्पष्ट, मधुर व विशाल दृष्टि थी दिवाकरजी महाराज की । वह भी परतन्त्रता के उस युग में जहाँ दुहरी शासन सत्ता की मार के आगे जनता त्रस्त थी किन्तु महामानव दिवाकर जी महाराज को तो एक नई भूमिका व नई प्रक्रिया में मानव धर्म का सन्देश देना था। क्या जादू था उनकी वाणी में - यह तो श्री आलिम हाफिज (सवाई माधोपुर) की आत्मा से पूछें क्योंकि वह जैनत्व से ओतप्रोत था। उसने जैनधर्म स्वीकार कर अपना शेष जीवन तप पूर्वक व्यतीत किया था।
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बम्बई (कांदावाड़ी) के स्थानक के सम्मुख शोकाकुल मौलाना की ये बातें क्या पुरानी हो सकती हैं ? जब उसे दिवाकरजी महाराज के स्वर्गवास की प्रथम सूचना वर्षों बाद मिली तो वह बोल उठा
"या परवरदिगार ! यह क्या हुआ ? ऐसी रूहानी हस्ती हमसे जुदा हो गई। काश ! उस सच्चे फकीर का दीदार मुझे नसीब हो जाता ।"
दिवाकरजी महाराज किसके हैं ? किसके नहीं ? वे सबके हैं, सबके लिए हैं । जहाँ भेद की दीवारें ढह जाएं, वहीं सच्चा धर्म है । ये क्षण परमानन्द के हैं ।
धर्म के नाम पर विभेदक रेखाएँ न्यूनतम हों तभी धर्म-ज्योति का प्रकाश केन्द्रित होकर अधिक तेजी से प्रज्वलित होगा- यह मानते हुए एक नई दिशा दी दिवाकरजी ने
"धर्मात्मा बनो, धर्मान्ध नहीं"
- दि० दि० भा० ५,२३८
धर्म का स्वरूप, साधना प्रकार में अन्तर होने पर भी एक ही रहता है।
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दि० दि० भा० २, पृ० १६८
समता का मसीहा
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भारतीय संस्कृति की आधार शिला त्याग, अहिंसा व समता पर टिकी हुई है । इसे संयम, ज्ञान, आचार का मिश्रण कर समतावादी दृष्टिकोण दिया दिवाकरजी महाराज ने जैन दृष्टि में समभाव वाला ही श्रमण है । अतः वर्ग-विहीन समता प्रधान समाज बनाने वाले दिवाकरजी महाराज सही अर्थ में श्रमण थे। समाज सेवा को समर्पित इस सत्यान्वेषी सन्त ने अपनी शक्ति,
१ समयाए समणो होइ ।
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