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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ ।
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणे : ३३४ :
अतः श्रमण शब्द का अर्थ है सभी प्रकार के अन्तः-बाह्य परिग्रह से रहित जैन साधु । श्रमण संस्कृति में मानवता के वे उच्चतम आदर्श, आध्यात्मिकता के वे गूढ़तम रहस्यमय तत्व एवं व्यवहारिकता के वे अकृत्रिम सिद्धान्त निहित है जो मानव-मात्र को चिरन्तन सत्य की अनुभूति व साक्षात्कार कराते हैं । मानवता के हित साधन में अग्रणी होने के कारण यह वास्तव में सच्ची मानव संस्कृति है और इस मानव संस्कृति के अनुयायी, परिचालक, उद्घोषक एवं विश्लेषक रहे हैं हमारे प्रातः स्मरणीय गुरुदेव जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज साहब । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि श्री जैन दिवाकर जी ने श्रमण-धर्म, श्रमण-आचार-विचार एवं श्रमण-परम्परा का पूर्णतः परिपालन एवं निर्वाह किया। अतः श्रमण-संस्कृति एवं श्रमण-परम्परा में उनका अद्वितीय स्थान है।
वर्तमान शताब्दी में श्रमण आचार-विचार का निष्ठा एवं विवेकपूर्वक परिपालन करने के कारण श्री जैन दिवाकरजी महाराज को श्रमण-परम्परा में विशिष्ट महत्व एवं अद्वितीय स्थान प्राप्त है । अतः यहाँ संक्षेपत: श्रमण एवं श्रामण्य की चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा । "श्रमणस्य भावः श्रामण्यम्" अर्थात् "श्रमण के भाव को ही श्रामण्य" कहते हैं । संसार के प्रति मोह-ममता, राग-द्वेष के भाव का पूर्णतः त्याग करना अथवा संसार के समस्त अन्तः-बाह्य परिग्रहों से रहित होकर पूर्णतः संन्यास ग्रहण करना और संयमपूर्वक साधु-पथ का अनुकरण करना ही "श्रामण्य" कहलाता है। इसमें किसी भी प्रकार के विकार के लिए रंचमात्र भी स्थान नहीं है और आचरण की शुद्धता एवं अन्तःकरण की पवित्रता पूर्वक संयमाचरण को ही विशेष महत्त्व दिया गया है। इस प्रकार का अकृत्रिम एवं विशुद्ध आचरण करने वाला जैन साधु ही श्रमण होता है। उसके विशुद्धाचरण में बतलाया गया है कि वह पंच महाव्रतों का पालक एवं राग-द्वेषोत्पादक समस्त सांसारिक वृत्तियों का परित्यक्ता होता है। वह निष्कर्म भाव की साधना से पूर्ण एकाग्रचित्तपूर्वक आत्मचिन्तन में लीन रहता है। आडम्बरपूर्ण व्यवहार एवं क्रिया-कलापों का उसके जीवन में कोई स्थान नहीं होता और वह आत्महित साधन के साथ मानवता के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित रहता है।
श्री जैन दिवाकरजी महाराज एक साधनारत महान् जैन साधु थे और पूर्ण निष्ठापूर्वक वे साधुवृत्ति का आचरण करते थे। इस दृष्टि से उन्होंने अपने जीवन में कभी शिथिलाचार नहीं आने दिया। अनेक बार उन्हें अपने जीवन में भीषण परिस्थितियों एवं समस्याओं का सामना करना पड़ा। किन्तु वे न तो कभी विचलित हुए, न कभी घबड़ाये और न ही कभी अपने आचरण को रंचमात्र भी दूषित होने दिया। इस प्रकार वे सही मायने में एक उच्चकोटि के साधक होने के कारण श्रमण थे। श्रमणत्व उनकी रग-रग में व्याप्त था और श्रमण धर्म उनके आचरण में झलकता था। जिन लोगों को उनके दर्शन-लाभ का सौभाग्य प्राप्त हुआ है उन्होंने वास्तव में श्रमणत्व की एक जीती-जागती प्रतिमा के दर्शन किए हैं। कमल की भाँति सदैव खिला हुआ उनका मुखमण्डल उनके अभूतपूर्व सौम्य भाव को दर्शाता था। उनके चेहरे पर विद्यमान अद्वितीय तेज उनके साधनामय संयमपूर्ण जीवन का साक्षी था। उन्होंने अपने साधनामय जीवन के द्वारा एक सच्चे श्रमण का जो आदर्श उपस्थित किया है सुदीर्घकाल तक उसका उदाहरण मिलना सम्भव नहीं है। अपने हृदय की विशालता और उस विशाल हृदय में व्याप्त मानवता के प्रति असीम करुणा का ऐसा विलक्षण धनी चिरकाल तक देखने को नहीं मिलेगा।
वे एक युग पुरुष थे और इसके साथ ही वे युग दृष्टा भी थे। उन्होंने जीवन के यथार्थ के साथ ही मानवीय मूल्यों एवं वर्तमान में हो रहे उसके ह्रास को भी समझा था। वे स्वयं अनुभव करते थे कि जीवन की जटिलताओं से घिरा हआ निरीह मानव आज कितना हताश और अपने
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