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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
श्रमण परम्परा में श्री जैन दिवाकरजीमहाराज का ज्योतिर्मय व्यक्तित्व
आचार्य राजकुमार जैन
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विचार धाराएँ प्रवाहित होती वैदिक विचारधारा ने भारत में
आरम्भ से ही भारतीय संस्कृति के मूल में समानान्तर दो रही हैं - एक वैदिक विचारधारा और दूसरी श्रमण विचारधारा । वैदिक संस्कृति को जन्म दिया तो श्रमण विचारधारा ने श्रमण संस्कृति के उद्भव में अपनी प्रवृत्ति की उद्भावना की । श्रमण विचारधारा या श्रमण संस्कृति ने जहाँ आन्तरिक शुद्धि और सुख-शान्ति का मार्ग बतलाया, वहाँ ब्राह्मणों अथवा वैदिक संस्कृति ने बाह्य सुख-सुविधा और बाह्य शुद्धि को विशेष महत्त्व दिया । श्रमणों अथवा श्रमण परम्परा ने जहाँ लोगों को निश्र ेयस एवं मोक्ष का मार्ग बतलाया ब्राह्मणों ने वहाँ लौकिक अभ्युदय के लिए विभिन्न उपाय अपनाकर लोगों का मार्ग-दर्शन किया । श्रमण विचारधारा ने व्यक्तिगत रूप से जहाँ आत्म-कल्याण की भावना से लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया तथा "जिओ और जोने दो' के व्यावहारिक रूप में विश्व को अहिंसा का सन्देश देकर प्राणिमात्र के प्रति समता भाव का अपूर्व आदर्श जन-सामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया वहाँ दूसरी ओर ब्राह्मण वर्ग ने वर्ण-व्यवस्था के द्वारा न केवल समाज में फैली अव्यवस्था अपितु विभिन्न सामाजिक विरोधों को दूर कर धार्मिक मान्यताओं एवं क्रिया-कलापों को दृढ़मूल किया । श्रमण वर्ग सदा अपनी आत्मा का निरीक्षण करने के कारण अन्तर्दृष्टि बना रहा, जबकि ब्राह्मण वर्ग ने शरीर के संरक्षण एवं पोषण को विशेष महत्त्व दिया । श्रमण संस्कृति जहाँ भौतिकता से स्वयं को हटा कर आध्यात्मिकता की ओर प्रेरित करती रही, वहाँ वैदिक संस्कृति विविध क्रियाकाण्डों की ओर जन-सामान्य को आकृष्ट करती रही । श्रमण परम्परा ने जहाँ अपने त्याग, तपश्चरण एवं आत्म-संयम के द्वारा समाज के सम्मुख अनेक आदर्श उपस्थित किए वहाँ वैदिक संस्कृति से अनुप्राणित ब्राह्मण परम्परा अपने विधि-विधान के द्वारा समाज की गहरी परिवा को आपूरित करती रही । जहाँ श्रमण विचार प्रवाह अपनी अहिंसक प्रवृत्तियों के द्वारा यथार्थ के धरातल को अभिसिंचित करता रहा, वहाँ ब्राह्मण समुदाय जीवन में कर्मकाण्ड की अनिवार्यता को निरूपित करते हुए व्यावहारिक कार्य-कलापों से जीवन को पूर्ण बनाता रहा । आत्मा और शरीर, आदर्श और विधान, ज्ञान और आचरण, सिद्धान्त और प्रयोग तथा निश्चय और व्यवहार के इस अभूतपूर्व सम्मेलन से ही भारत की सर्व लोककल्याणकारी संस्कृति का निर्माण हुआ है और इसी के परिणामस्वरूप इसे चिरन्तन स्थिरता प्राप्त हुई है।
: ३३१ : श्रमण परम्परा में ज्योतिर्मय व्यक्तित्व
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि श्रमण परम्परा ने अभ्युदय और निश्रेयस का मार्ग प्रशस्त करने वाली जिस गरिमामय संस्कृति का निर्माण किया है उसने भारतीय जन-जीवन के मानसिक धरातल को इतना उन्नत बना दिया है कि आध्यात्मिकता उसके रोम-रोम में व्याप्त हो गई है । इसका यह परिणाम है कि चिरकाल तक जनमानस में धार्मिक सहिष्णुता का भाव जाग्रत करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई अपितु वह तो स्वतः ही लोगों के अन्तःकरण में उद्भूत हुआ । श्रमण-परम्परा ने समाज और देश को आभ्यन्तरोन्मुख जिस मार्ग पर दी उसका उद्देश्य अन्तः मुखी प्रवृत्तियों को जाग्रत कर समाज को निवृत्ति की ओर प्रेरित करना था । श्रमण संस्कृति में साधु और सन्तों की एक लम्बी परम्परा है जिसने अनुकरणीय आचरण
चलने की देशना और प्रेरणा
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