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श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
व्यक्तित्व की बहरंगी किरणें : ३२२ :
भारत के एक अलौकिक दिवाकर
4 श्री मनोहर मुनि 'कुमुद' (बम्बई)
इस गगनमण्डल पर दिवाकर का उदयास्त अनन्त बार हो चुका है। क्षितिज पर इसका शुभागमन इस धरती पर दिव्य प्रकाश लेकर आता है और अस्ताचल की ओर इसका प्रयाण धरती पर अन्धकार का गहनावरण डाल देता है किन्तु महापुरुष एक ऐसा दिवाकर है कि जब इस संसार में उसका उद्भव होता है तो वह अपने साथ दिव्य संस्कार का अनन्त प्रकाश लेकर आता है । जब तक वह इस दुनिया में रहता है तब तक वह लोकमानस के सचेतन धरातल पर अपने जीवन के तप, त्याग, सत्य, संयम, माधुर्य, मैत्री, सौहार्द, स्नेह तथा उपदेश वाणी की प्रकाश किरणें बिखेरता रहता है, किन्तु जब वह इस नश्वर जगत से मृत्यु अस्ताचल की ओर महाप्रयाण करता है तब भी वह इस धरा पर अपने पावन एवं पुनीत आदर्शों का एक अनन्त प्रकाश छोड़कर जाता है। आकाश के उस दिवाकर में और धरती के इस दिवाकर में यही अन्तर है । यह अन्तर भी कोई कम नहीं है। यह वह अन्तर है जो एक को लौकिक और दूसरे को अलौकिक बना देता है।
सूर्य सदैव पूर्व दिशा में उदित होता है और पश्चिम में अस्त हो जाता है। किन्तु चेतन सूर्य के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है । महापुरुष इस धरती पर किसी भी दिशा से प्रकट हो सकता है। उसके लिए दिशा का कोई प्रतिबन्ध नहीं है । उस दिशा मुक्त दिवाकर का अस्त इस धरती पर कहीं भी हो सकता है वस्तुतः तत्त्व दृष्टि से देखा जाये तो दुनिया में महापुरुष का अस्त कभी होता ही नहीं। क्योंकि उसके सजीव आदर्श लोक-मानस में ज्ञानालोक के रूप में सदैव उदित रहते हैं । केवल इस धरातल पर चर्म-चक्षुओं के लिए उसका दर्शन न होना ही उसका अस्त है। जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज इस धरती के एक ऐसे ही ज्ञान एवं चारित्र के प्रकाशमान दिवाकर थे। आपका उदय मध्यप्रदेश के नीमच नगर में हुआ और आपके पार्थिव शरीर का अस्त कोटा की धरती पर हुआ किन्तु आपका पुण्य स्मरण हर हृदय-गगनाङ्गन में जैन दिवाकर के रूप में आज भी उदित है। दुनिया के मन से वह कभी अस्त नहीं हुआ । अवश्य उस व्यक्तित्व में कुछ वैशिष्ट्य होगा। नहीं तो दूसरों के मन में सूर्य बनकर चमकना कोई साधारण बात नहीं है। गंगाराम की आँखों का तारा और केसरादेवी के कुल का दीपक आगे चलकर जैन दिवाकर बन जायेगा। प्रकृति के इस गुप्त रहस्य को कोई नहीं जानता था। दुनिया में जीव कर्म से बँधा हुआ चला आता है और मृत्यु के आने पर चला जाता है। आने और जाने में कोई विशेषता नहीं। मानव इस धरती पर अपने जीवन-काल में रहता किस तरह से है उसके व्यक्तित्व का सारा रहस्य इस तथ्य पर ही आधारित रहता है । केवल जीवनयापन मात्र जीवन का कौशल नहीं है । मानव अपने साथ मोह लेकर आता है और सारी उमर वह अपने मन, वचन और काया के कर्म-जाल से उस मोह का सिंचन करता रहता है । स्व-सुख से बंधा हुआ जीव केवल मोह को ही बढ़ाता है और मोहशील व्यक्ति जीवन-भर दुःख और कर्मबन्ध के रूप में उस मोहवृक्ष के कटु-फल भोगता रहता है। किन्तु कभी पूर्व जन्म के पुण्योदय से व्यक्ति के अन्तरङ्ग में सद्ज्ञान का जन्म होता है। ज्ञान जीवन की वह मंगल बेला है जिस बेला में मानव के मिथ्या मोह का उपशमन होने लगता है। उसे अपनी आँखों के सामने अपनी आत्मा का दिव्य प्रकाश एवं शाश्वत सुख नजर आने लगता है । वह जगत के समस्त चेतन एवं अचेतन सम्बन्धों के नागपाश से मुक्त होने के लिए अधीर हो जाता है। चित्त की इस विरक्त दशा को शास्त्रीय भाषा में वैराग्य कहा जाता है।
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