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: २८३ : समाज सुधार के अग्रदूत..."
श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
श्री जैन दिवाकर स्मृति - निबन्ध प्रतियोगिता में तृतीय पुरस्कार योग्य घोषित निबन्ध
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समाज सुधार
के
अग्रदूत :
जैन दिवाकरजी महाराज
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मुनिश्री नेमिचन्द्रजी
मनुष्य सामाजिक प्राणी है । वह समाज का आलम्बन और सहयोग लिए बिना सुखपूर्वक नहीं सकता, न ही आध्यात्मिक, नैतिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अभ्युदय कर सकता है । साधारण गृहस्थ की बात जाने दीजिए, महान् से महान् साधु-सन्त, तपस्वी, त्यागी भिक्षु एवं संन्यासी भी समाज के सहयोग के बिना अपनी जीवनयात्रा अथवा संयमयात्रा सुखपूर्वक नहीं कर सकते । उन्हें भी पद-पद पर समाज का सहारा लेना पड़ता है। चाहे वे अकेले अलग-अलग घोर जंगल, जनशून्य बीहड़, या गुफा में ही एकान्त में जाकर साधना करें उन्हें भी समाज के कुछ न कुछ सहयोग की आवश्यकता रहती है । इसीलिए भगवान् महावीर ने स्थानांगसूत्र (स्थान ५, ३-३ ) में धर्माचरण करने वाले साधक के लिए ५ सहायकों का आश्रय लेना बताया है - ( १ ) कायिक जीव, (२) गण, (३) शासक, (४) गृहपति और ( ५ ) शरीर । '
इस पर से आप अनुमान लगा सकते हैं कि उच्च साधकों को भी अपनी धर्ममय जीवनयात्रा के लिए मानव समाज ही नहीं, प्राणिमात्र के तथा विशिष्ट लोगों के आश्रय की कितनी आवश्यकता रहती है !
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समाज में अशुद्धियों का प्रवेश
मनुष्यों का समूह ही समाज कहलाता है । समाज जब बनता है, तब उसको संगठित और सुव्यवस्थित करने वाले का उद्देश्य पवित्र होता है । मनुष्य पशुता और दानवता से ऊपर उठकर मानवता को धारण करे, शुद्ध धर्मप्रधान जीवन बिताए, अपने जीवन को शुद्ध और पवित्र रखकर उच्च भूमिका पर पहुँचे, यही समाज निर्माता महापुरुषों का उद्देश्य होता है, लेकिन धीरे-धीरे बाद में समाज में कुछ विकृतियाँ घुस जाती हैं । वातावरण, परिस्थिति, पारस्परिक प्रभाव, कुसंग एवं कुविचार-संसर्ग के कारण समाज में कई दुर्व्यसन एवं दूषण प्रविष्ट हो जाते हैं । कई बार गृहस्थसमाज के नेताओं की असावधानी या उपेक्षा के कारण अथवा अदूरदर्शिता के कारण कई कुरूढ़ियाँ समाज में प्रचलित हो जाती हैं, कई बार समाज में खोटी प्रतिक्रियावश कई व्यक्ति चोर, डाकू, वेश्या, जुआरी या हत्यारे आदि भयंकर राक्षस-से बन जाते हैं । कई बार समाज की लापरवाही के कारण कई व्यक्ति अनैतिक कार्यों को करने लग जाते हैं। समाज में अहंकार के पुजारियों की रस्साकस्सी से कई बार फूट, मनमुटाव और वैमनस्य की आग भड़क उठती है, जो सारे समाज की शान्ति को भस्म कर देती है । ये और इस प्रकार की बुराइयाँ ही समाज की गन्दगी हैं । ये धीरे-धीरे समाज में प्रविष्ट होकर समाज के स्वच्छ वातावरण को गन्दा बना देती हैं। समाज में इस प्रकार की गन्दगी बढ़ जाने के कारण समाज अशुद्ध और दूषित होता जाता है । ऐसे समाज में सज्जन व्यक्ति का साँस लेना अत्यन्त कठिन हो जाता है। सत्ता, पद और धन का अहंकार समाज का त्रिदोष है । इन तीनों में से किसी भी एक के अहंकार के कारण समाज में बुराइयाँ पनपती हैं और
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१ " धम्मस्स णं चरमाणस्स पंच णिस्साट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा छक्काया, गणे, राया गाहावती, सरीरं ।" - स्थानांगसूत्र स्थान ५, ३-३ सूत्र १६२
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