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श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : २८२ :
बूढ़े तथा असमर्थ लोगों के प्रति वे काफी संवेदनशील थे। जिनका वृद्धावस्था कोई सहारा नहीं होता, उनका जीवन भी शांति और धार्मिक वातावरण में बीते, इसलिए उन्होंने एक चतुर्थाश्रम की स्थापना की जो आज चित्तौड़ में चल रहा है।
महावीर-वाणी का अधिक से अधिक प्रचार और प्रसार हो यह उनकी हार्दिक इच्छा थी। महावीर-वाणी में वह शक्ति है जो संसार की अशांति को निर्मूल कर देती है। इसलिए उन्होंने 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' जैसे मूल्यवान् ग्रन्थ का सम्पादन किया।
वे हृदय से साफ, स्पष्ट और शुद्ध थे, अपनी कमजोरियों को व्यक्त करने में वे कभी नहीं हिचकिचाते थे। एक बार स्व० सेठ राजमलजी ललवाणी ने जब उनसे पूछा कि 'महाराज! आप लोग भगवान जिनेन्द्र की वाणी का ही रसपान कराते हैं, केवली की वाणी ही सुनाते हैं, फिर भी हम लोगों पर आपकी बात का असर क्यों नहीं होता ?' तब दिवाकरजी महाराज ने एक प्राचीन कथा के उदाहरण द्वारा समझाया कि 'भाई, तुम भी बन्धन में और हम भी बन्धन में, अब कौन किसको बन्धन से मुक्त करे-हम भी राग-द्वेष के विकारों से कहाँ मुक्त हैं ?' हम दावे के साथ कह सकते हैं कि ऐसी बात निरहंकारी और शुद्ध साधक ही कह सकता है, और जो शुद्ध होता है, उसकी वाणी का, चरित्र का और शरीर का सुपरिणाम सामने वाले पर हुए बिना नहीं रह सकता।
आज यद्यपि दिवाकरजी महाराज हमारे बीच नहीं हैं, पर वे जो कार्यरूप स्मृतियाँ छोड़ गए हैं उनको आगे बढ़ाना ही उनका हमारे बीच विद्यमान रहने का प्रमाण होगा। परिचय :
[समस्त जैन समाज के प्रिय नेता व कर्मठ कार्यकर्ता, तटस्थ विचारक, लेखक : 'भारत जैन महामण्डल के प्राण प्रतिष्ठापक' गत दिसम्बर में स्वर्गवासी]
मनः शुद्धि प्रयत्न (तर्ज-या हसीना बस मदीना करबला में तू न जा) इस तन को धोए क्या हुवे, इस दिल को धोना चाहिए। बाकी कुछ भी ना रहे, बिलकुल ही धोना चाहिए !।टेर।। शिल्ला बनावो शील की, और ज्ञान का साबुन सही।। प्रेम पानी बीच में, सब दाग खोना चाहिये ॥१॥ व्यभिचार हिंसा झूठ चोरी, काम-क्रोध-मद-लोभ का। मैल बिल्कुल ना रहे, तुम्हें पाक होना चाहिये ।।२।। दिल खेत को करके सफा, और पाप कंकर को हटा। प्रभू नाम का इस खेत में, फिर बीज बोना चाहिये ॥३॥ मुंह को धोती है बिल्ली, स्नान की कव्वा करे। ध्यान बक कैसा धरे, ऐसा न होना चाहिए ॥४॥ गुरु के प्रसाद से, कहे चौथमल सुन लीजिये। झठे गौहर छोड़ कर, सच्चे पिरोना चाहिये ॥५॥
-जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज
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