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: २६५ : विश्वमानव मुनिश्री चौथमलजी महाराज
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
विश्वमानव मनि श्री चौथमलजी महाराज
* स्व० पं० 'उदय' जैन अद्धं शताब्दी पूर्व की बात है । हम छोटे बच्चे थे । सुनते थे-श्री चौथमलजी महाराज पधारे है । जैन-अजैन सभी उनकी अगवानी कर रहे हैं, जय बोल रहे हैं, व्याख्यान सुन रहे हैं, त्यागप्रत्याख्यान कर रहे हैं और यह भी सुनते थे कि अमुक राजा, अमुक महाराजा, अमुक राणा, अमुक महाराणा, अमुक ठाकुर, अमुक रावत, अमुक नवाब और अमुक सामन्त, अमुक अमीर, अमुक उमराव उनके दर्शन कर प्रसन्न हुए हैं, प्रभावित हुए हैं। शिकार छोड़ी है और अगते पलवाने प्रारम्भ किये हैं। अमुक निम्न समझी जाने वाली जाति ने उनको अपना गुरू माना है। उसने शराब पीनी छोड़ी है, मांस खाना छोड़ा है। अमुक गांव में वर्षों से चले आ रहे धड़े मिटे हैं और अमूक जाति उनकी भक्त बनी है।
समय था, चारों ओर श्री चौथमलजी महाराज के नाम की धूम मची थी। शिष्य पर शिष्य बन रहे थे । यद्यपि वे अपनी सम्प्रदाय के आचार्य नहीं थे, लेकिन आचार्य के समान शोभित हो रहे थे। उन्हीं के आदेश पाले जा रहे थे, उन्हीं की पूजा हो रही थी और उन्हीं के गुण-गान गाये जा रहे थे। न हों आचार्य और न मिले उपाध्याय पद, फिर भी सभी कुछ थे। वे बेताज के सन्तसिरोताज थे। उनकी मुनि-मण्डली के बादशाह-सम्राट थे। उनका संगठन श्री 'चौथमलजी महाराज की सम्प्रदाय' के नाम से मशहूर था।
मालव प्रदेश और मेवाड़ उनका अनन्य उपासक था। जिधर विहरते, उधर उनके भक्तों की भीड़ जम जाती थी। जहां बोलते, वहाँ भक्तगण आ जमते और जब तक बोलते, उनकी तरफ बिजली की भाँति खिचे हुए जमे रहते, एक टक निहारते और उन्हीं की सुनते थे। उनका भाषण बन्द और जनसमूह तितर-बितर । दूसरा कोई भी बोले-जनता सुनना पसन्द नहीं करती थी।
क्या था उनकी वाणी में ? और क्या था उनके शरीर के भाषणस्थ आसन-पीठ में जिससे कि जनता उनकी ओर ही खिची रहती थी ? उनका दीदार, उनका शरीराकार, उनका समवसरणस्थ अमोघ वर्षण और उनकी दिव्य ललकार तथा उनकी संगीत की पीयूषसनित फटकार-ये ही तो उनके आकर्षण के कारण थे, ये ही उनके प्रसिद्धि के साधन थे और ये ही उनके भक्ति के अंग थे।
शिष्य-समुदाय के साथ उनकी एक संगीत की झंकार हजारों की जन-मेदिनी को मोहित कर लेती थी, झुमा देती थी, मस्त बना देती थी और असर डालकर हृदय-परिवर्तन कर देती थी। उनकी संगीत की ध्वनि मुह से उच्चरित होते ही उनका शिष्य-समुदाय उसे तत्काल उठा कर, उसको संवर्धमान करती हुई हृदय बीणा के तार झंकृत कर देती थी। वह ध्वनि, वह वाणी और वह उद्गीथ सरस्वती की वीणा की तान एक बार मानव मन को मोहित कर, उस ओर आकर्षित कर लेती थी। ऐसा आकर्षण कि जन-मन की श्र तेन्द्रियजनित श्रवण-शक्ति आस-पास के गगनभेदी आवाजों की तरफ से भी बहरी बना देती थी। कितना ही शोर मच रहा हो, कितने ही ढोल और बाजे बज रहे हों, कितने ही गगनभेदी नारे लग रहे हों, लेकिन जब तक उस सुरीलसंगीत की ध्वनि-लहर बहती रहती, किसी का कान-किसी का ध्यान उधर नहीं जाता था । यह थी उस महामुनि श्री चौथमल जी महाराज की वाणी की विशेषता, जिसको उनके भक्तगण भी नहीं साध सके और न पा ही सके ।
क्या मुनि श्री चौथमलजी महाराज प्रसिद्ध वक्ता थे ? यह एक प्रश्न मेरे दिमाग में
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