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|| श्री जैन दिवाकर स्मृति-न्य
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३१२ :
आह्वान किया था, अपने इस आह्वान के अनुसार सर्वप्रथम अपने आपको समर्पित किया था। जिसकी प्रतीति निम्नलिखित प्रसंग से हो जाती है
ब्यावर में पाँच स्थानकवासी श्रमण सम्प्रदायों ने एक संघ की स्थापना की थी। इनके प्रमुखों ने अपनी-अपनी पदवियों-सम्प्रदायों को छोड़कर एक आचार्य की नियुक्ति की थी। जिन पाँच सम्प्रदायों का विलय हुआ था । उनमें से तीन में पदवियाँ नहीं थीं और दो में थीं। दो में से भी इस सम्प्रदाय में पदवियाँ अधिक थीं। अपने प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने अपने प्रिय शिष्य उपाध्याय पंडितरत्न श्री प्यारचन्दजी महाराज को भेजते हुए अपना संदेश भेजा था-"पदवी एक ही आचार्य की रखना, अन्य आचार्य-पद न रखना और यह पदवी श्री आनन्द ऋषिजी महाराज को देना । यदि अलग-अलग पदवी दोगे, तो त्याग अधूरा रहेगा । अतः त्याग सच्चा और वास्तविक करना।" - इसके बाद का जो प्रसंग है उसमें ही आपश्री के संघ समर्पित जीवन की भावना साकार रूप लेती है कि सम्मेलन सम्पन्न करके जब श्री उपाध्यायजी महाराज लौटे और सब विवरण सुना तो अत्यन्त हर्ष विभोर हो गये। इस अवसर पर किसी ने कहा-"गुरुदेव ! अपने सम्प्रदाय की सब पदवियों के त्याग से चार तो यथास्थान बने रहे, हानि अपनी ही हुई है।" तब आपने उसे बड़ी उदारता एवं सरलता से समझाते हुए कहा-"त्याग का भविष्य अतीव उज्ज्वल है। आज का यह बीज कल वटवृक्ष का रूप धारण करेगा। आज का यह बिन्दु कल सिन्धु बनेगा। दृष्टि व्यापक और उदार रखनी चाहिये। तेरा-मेरा क्या समष्टि से बड़ा होता है ? व्यक्ति से समाज बड़ा होता है और समाज से संघ । संघ के लिये सर्वस्व अर्पण कर दोगे तो कोई परिणाम निकलेगा, पदवी तो इसके आगे बहुत नगण्य है।"
पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने अपनी वचनलब्धि से जो अभिव्यक्त किया था, वह भविष्य में यथार्थ के धरातल पर प्रगट हआ और उसकी परिणति हई-श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के रूप में ! जिसमें एक आचार्य के नेतृत्व में श्रमण वर्ग आज अपनी साधना में रत है एवं आत्म कल्याण करने के साथ-साथ जन-कल्याणकारी प्रवृत्तियों के लिये यथायोग्य निर्देश करता है। स्वाध्याय-ध्यान योगी!
पूज्यश्री जैन दिवाकरजी महाराज की ख्याति प्रसिद्ध वक्ता के रूप में थी और आपका नाम ही 'प्रसिद्ध वक्ता' पड़ गया था। यह उनका बाह्य रूप था, लेकिन जिन्होंने उनके अन्तरंग को देखा है. वे जानते हैं कि उनके जीवन में स्वाध्याय और ध्यान साकार हो उठे थे । अपने दैनंदिनी कार्यों से जब भी और जितना भी अवकाश मिलता था तब दिन को स्वाध्याय, विविध ग्रन्थों का अध्ययन अथवा किसी न किसी ग्रन्थ की रचना में संलग्न रहते । रात्रि के समय जब सभी सोये हुए होते, तब ध्यान-साधना में लीन रहते थे । अन्तेवासी श्रमण वर्ग दिन हो या रात्रि, सदैव ध्यानस्थ देखते तो उन्हें आश्चर्य होता कि आपश्री नींद लेते हैं या नहीं, और लेते भी हैं, तो कब ? सदा ही जपतप स्वाध्याय, ध्यान में लीन ।।
उक्त दोनों प्रकार की साधनाओं का परिणाम था कि आपश्री ने आगम, बौद्ध और वैदिक साहित्य का गम्भीरता से अनुशीलन किया था। आपको हजारों गाथायें, श्लोक, सूक्तियाँ कण्ठस्थ थीं प्रवचन के समय उन्हें प्रस्तुत करके श्रोताओं के मानस में एक नई किरण, नई अनुभूति जाग्रत कर देते थे।
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