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: ३०७ : बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी....
। श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ॥
लेना, एक प्रकार का अभिनिवेश पूर्ण विचार है। इसीलिए श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने साम्प्रदायिकता का व्यामोह दूर करने का अनवरत प्रयास किया। उन्होंने सम्प्रदायवाद से दूर रहने का सदैव आह्वान किया। सम्प्रदायवाद का विषेला अंकुर कब, कैसे और कहाँ फूटता है ? इसकी ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा था
"समाचारी में जरा-सा अन्तर देखकर आज दूसरों को ढीले होने का प्रमाण-पत्र दे दिया जाता है और इसी बहाने उच्चता का ढोल पीटा जाता है । मानो एक सम्प्रदाय तभी ऊँचा सिद्ध हो सकेगा जब दूसरों को नीचा दिखाया जावे। दूसरे को नीचा दिखाकर अपनी उच्चता प्रगट करने वालों में वास्तविक उच्चता नहीं होती । जिसमें वास्तविक उच्चता होगी वह अपनी उच्चता प्रगट करने के लिए किसी दूसरे की हीनता साबित करने नहीं बैठेगा । अतएव जब कोई साधु दूसरे साधु की हीनता प्रगट करता हो, उसे ढीला बताता हो, अपने आचार-विचार की श्रेष्ठता की डींग मारता हो तो समझ लीजिये उसमें वास्तविक उच्चता नहीं है।" --'दिवाकर वाणी' पृष्ठ १२४
उक्त कथन में श्रद्ध यप्रवर श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने उस मर्म का उद्घाटन किया है, जो मानव जाति को अलग-अलग दायरों में बांटता है। उन दायरों को सच्चा यथार्थ मानकर दूसरों को अपमानित करने की नई-नई तरकीबें सोची जाती हैं। दूसरे धर्मानुयायियों की ओर दृष्टिपात न करके यदि हम श्रमण भगवान महावीर के अनुयायी अपने को देखें, तो पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है, कि अपने-अपने दायरों से आगे बढ़ने में धर्म संकट मानते हैं । साथ ही दूसरों की गर्हा-निन्दा कैसे की जाये? इन उपायों के ताने-बाने जुटाते रहते हैं।
सम्प्रदायवाद के दुष्परिणामों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए उन्होंने कहा था-"सम्प्रदायवाद का ही यह फल है कि आज एक सम्प्रदाय का साधु दूसरे सम्प्रदाय के साधु से मिलने में, वार्तालाप करने में एवं मिल-जुलकर ध्यान करने में पाप समझता है । एक साधु दूसरे साधु के पास से निकल जायेगा, मगर बातें नहीं करेंगे। दूसरों से बात करने में पाप नहीं लगता है, परन्तु अन्य सम्प्रदाय के साधुओं से बातचीत करने में पाप लगता है। कैसी विचित्र कल्पना है। कितनी
मूर्खता है।"
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"जो साधु शास्त्रोक्त साधु के गुणों से युक्त हैं तो उनके चरणों में बारम्बार वन्दना करो, फिर यह मत सोचो कि यह हमारे सम्प्रदाय के हैं अथवा भिन्न सम्प्रदाय के हैं । सद्गुणों की पूजा करो, अवगुणों की पूजा से बचो। साम्प्रदायिकता का मलीन भाव मिथ्यात्व की ओर घसीट ले जाता है।"
-दिवाकर वाणी, पृष्ठ १२३ श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने सम्प्रदायवाद की हानियों, बुराइयों को सिर्फ वचनों द्वारा ही प्रगट नहीं किया और न 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' के अनुरूप लोकरंजन अथवा जनसाधारण में अपना प्रभाव जमाने के लिए विचार व्यक्त किये। किन्तु स्वयं उनका मानस इस प्रकार की बाड़ाबन्दी को पसन्द नहीं करता था। उन्होंने सम्प्रदायवाद का उन्मूलन करने के लिए सक्रिय कदम उठाया और ऐसे समय में उठाया जब साम्प्रदायिक मान्यताओं को लेकर शास्त्रार्थ आयोजित किये जाते थे और तत्त्व निर्णय के नाम पर वितंडावाद का आश्रय लेने में भी किसी को हिचकिचाहट नहीं होती थी। ऐसी विपरीत एवं विकट परिस्थिति में भी आप अपने पथ से, प्रण से, उद्देश्य से विचलित नहीं हुए और जिसके फलस्वरूप आज के युग में लगभग २६-२७ वर्ष
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