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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
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ढलाव की ओर जाने में देर नहीं लगती सहज स्वाभाविक गति से प्रबल वेग से वह नीचे की ओर बहने लगता है और उसी जल को ऊँचाई की ओर ले जाने में विशेष प्रयत्न करना पड़ता है; उसी तरह बुरी आदतें तो देखा देखी स्वयं घर कर जाती हैं। पैर जमा लेती हैं, पर उनको उखाड़ने में, मिटाने में बहुत समय व श्रम लगता है। पर यह संतजनों का ही प्रभाव है कि उनकी संगति व वाणी के प्रभाव से बड़े-बड़े पापियों के दिल में अजब-गजब का प्रभाव बढ़ता है और वे क्षणभर में सदा के लिए उन पापों से निवृत्त हो जाते हैं, छोड़ देते हैं और धार्मिक तथा सात्त्विक वातावरण में आगे कूच करने लगते हैं । मुनिश्री चौथमलजी महाराज के जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग पाये जाते हैं जिससे अनेक व्यक्तियों ने अनेक बुराइयों को उनके उपदेश से छोड़ दिया और वे धार्मिक बन गये ।
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें २०२
हमारे शास्त्रकारों ने कहा है कि एक भी व्यक्ति को पापों से छुड़ाकर धर्म में नियोजित करने वाला बहुत बड़े पुण्य का भागी बनता है । अज्ञान और मिथ्यादृष्टि से मनुष्य विवेकहीन बन कर पापों का शिकार हो जाता है। अतः उसे सबोध व सम्यग्दृष्टि देने वाला महान् उपकारी होता है । क्योंकि सम्यग्दृष्टि होने के बाद मनुष्य में एक गहरा परिवर्तन होने लगता है वह भवमीरू या पापभीरू बन जाता है। बहुत बार बुरी बातें छोड़ नहीं पाता पर इसका उसके मन में यह नहीं करना चाहिए फिर भी मैं यह कर बैठता हूँ। यह मेरी बहुत बुरी प्रवृत्तियों से छुटकारा नहीं पा रहा हूँ मेरा वही दिन वही घड़ी निवृत्त हो जाऊँगा । जब तक वैसा नहीं हो पा रहा हूँ । तब तक मेरे है और उसके बुरे परिणाम मुझे भुगतने ही पड़ेंगे अतः जल्दी से जल्दी ऐसा उसके मन में बार-बार आता रहता है । सम्यग्दृष्टि और मिथ्या
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बड़ा दुःख होता है कि 'मुझे बड़ी कमजोरी है अतः मैं इन सार्थक होगी जब मैं इनसे अशुभ कर्मों का बंध हो रहा इन बुरी बातों को छोड़ दूं ।'
दृष्टि में यही सबसे बड़ा अन्तर है कि दोनों प्रवृत्तियां तो करते हैं, पर मिध्यादृष्टि गाढ़ आसक्तिपूर्वक करता है, बहुत बार उनके भावी दुष्परिणाम को नहीं सोचता और कई बार तो अच्छी समझकर करता रहता है और सम्यगृष्टि में एक ऐसा विवेक जागृत होता है जिसे वह अच्छी को अच्छी व बुरी को बुरी ठीक से समझता है तथा बुरी करते हुए उसके मन में चुभन रहती है, पश्चात्ताप रहता है, उसको छोड़ देने की भावना रहती है। कम से कम रूखे-सूखे परिणाम से क्या करू" करना पड़ता है, छोड़ सकूं तो अच्छा है; इस तरह के भाव उसके मन में रहते हैं ।
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सद्गुरु का लक्षण और कार्य ही यह है कि वह शिष्य या भगत के अज्ञान को मिटाता है । ज्ञान और विवेक जागृत करता है। गुरु की स्तुति करते हुए प्रायः यह श्लोक बोला जाता है
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया । नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥
- अर्थात् अज्ञान रूपी अन्धकार जिनके हृदय आँखों पर छाया हुआ है, गुरू ज्ञान की शलाका से उस अन्धकार को मिटा देते हैं । ज्ञाननेत्र खोल देते हैं । मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने अनेक अज्ञाकारण जो पथभ्रष्ट हो गये थे उन्हें सही और सच्चा मार्ग दिख
नियों के ज्ञान नेत्र खोले। अज्ञान के लाया। अब ज्ञान-नेत्र खुल जाने से वे बहुत बड़ा उपकार मानना चाहिये उन बुरी प्रवृत्तियों का सही ज्ञान तब तक वे उन पापों से निवृत्त नहीं
स्वयं अच्छे-बुरे का निर्णय करने में समर्थ हो गये। यह उनका क्योंकि अनेक पाप अज्ञान के कारण होते हैं। जब तक उन्हें नहीं होता उसके दुष्परिणामों की उन्हें जानकारी नहीं होती हो पाते। दूसरों की देखादेखी और अपने चिरकालीन अभ्यास
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