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श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ ।
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : २८६ :
विचरण का एक उद्देश्य यह भी मानते थे कि साधु जन-जन के सम्पर्क में आकर, उसकी नब्ज टटोल कर हृदयस्पर्शी उपदेश द्वारा जनता का जीवन परिवर्तन करे । वे जन-जीवन में व्याप्त कुप्रथाओं, हानिकारक कुरूढ़ियों एवं फूट तथा वैमनस्य को मिटाने में अपनी पूरी शक्ति लगा देते थे।
यहाँ हम उनके द्वारा समाजसुधार के रूप में कुछ युगान्तरकारी प्रयत्नों का दिग्दर्शन करते हैं, जिससे पाठक भलीभांति समझ सकें कि जैन दिवाकरजी महाराज के पावन हृदय में समाजसुधार की कितनी प्रबल प्रेरणा जागृत थी ! वैमनस्य और फूट को मिटा कर रहे
समाज में फूट सबसे अधिक घातक है, वह समाज के जीवन को अशान्त बना देती है और विकास के प्रयत्नों को ठप्प कर देती है । जिस समाज या जाति में वैमनस्य की विषाक्त लहर व्याप्त हो जाती है, उसकी शिक्षा-दीक्षा, सुसंस्कार एवं विकास की आशाएं धूमिल पड़ जाती हैं, प्रायः ऐसा समाज हिंसा-मानसिक हिंसा, असत्य एवं दुर्व्यसनों की ओर झुककर अपने लिए स्वयं पतन का गहरा गर्त खोदता रहता है।
विक्रम संवत् १९६६ की बात है। जैन दिवाकरजी महाराज अपनी शिष्यमण्डली सहित विचरण करते हुए हमीरगढ़ पधारे । वहाँ कतिपय वर्षों से हिन्दू छीपों में वैमनस्य चल रहा था। परिस्थिति इतनी नाजुक हो गई थी कि उनमें परस्पर प्रेमभाव होने की आशा ही क्षीण हो गई थी। अनेक सन्तों ने इस मनमुटाव को मिटाने का भरसक प्रयत्न कर लिया, मगर दोनों पक्षों के दिलों की खाई और अधिक चौड़ी होती गई। आपश्री का हमीरगढ़ में पदार्पण सुनकर छीपों ने अपनी मनोव्यथा-कथा आपके समक्ष प्रस्तुत की। आपने एकता पर विविध युक्तियों और दृष्टान्तों से परिपूर्ण जोशीला भाषण दिया। इसका प्रबल प्रभाव दोनों ही पक्षों पर पड़ा। दोनों ही पक्ष के अग्रगण्य लोग सुलह के लिए तैयार हो गए । वैमनस्य का मुंह काला हो गया। दोनों पक्षों में परस्पर स्नेह-सरिता बहने लगी।
इसी प्रकार माहेश्वरी और महाजनों में भी पारस्परिक वैमनस्य कई वर्षों से चला आ रहा था। आपने दोनों दलों को ऐसे ढंग से समझाया कि दोनों में पुन: आत्मीयता बढ़ी और दोनों स्नेहसूत्र में आबद्ध हो गए।
चित्तौड़ में ब्राह्मण जाति में आपकी ईर्ष्या के कारण तनातनी बढ़ गई थी। उसके कारण जाति में दो पाटियाँ हो गईं। एक पार्टी वाले दुसरी पार्टी वालों से बात करने से भी नफरत करते थे । जन दिवाकरजी महाराज के समक्ष चित्तौड़ चातुर्मास में यह विकट समस्या प्रस्तुत की गई। आपश्री के अविश्रान्त प्रयत्नों से दोनों पार्टियाँ एक हो गई। जाति में पड़ी हुई छिन्न-भिन्नता मिट गई । चित्तौड़ के हाकिम साहब ने इस ऐक्य की खुशी में सबको प्रीतिभोज भी दिया ।
गंगरार में अनेक जातियों में परस्पर मनमुटाव चल रहा था। आपके पदार्पण का समाचार सुनकर सम्बन्धित लोगों ने अपने वैमनस्य की आपबीती सुनाई। आपने करुणा होकर प्रबल प्रेरणा दी, जिससे उनमें पड़ी हुई फूट विदा हो गई। सबके हृदय में स्नेह-सद्भाव का झरना बहने लगा।
इन्द्रगढ़ का मामला तो बहुत ही पेचीदा था। वहाँ ४० वर्षों से ब्राह्मण जाति में फूट अपना आसन जमाए हुए थी। इस वैमनस्य को मिटाने के लिए अनेक प्रयत्न हुए, पर सब व्यर्थ ! इन्द्रगढ़-नरेश तक ने इस वैमनस्यपूर्ण कलह को मिटाने के लिए दोनों पक्षों के अग्रगण्यों से जोर देकर कहा, तब भी वे तैयार न हए । आखिर वि० सं० १९६२ का चातुर्मास कोटा में सम्पन्न
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