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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : २६२ :
इस कुरीति पर कड़ा प्रहार किया । फलतः सभी जैन- वैष्णवों ने वेश्यानृत्य की कुरीति का सदासदा के लिए त्याग कर दिया ।
वेश्याओं ने समाज का यह निर्णय सुना तो उन्हें बहुत बड़ा धक्का लगा, उन्हें लगा कि हमारी आजीविका ही छिन गई है। अतः एक दिन जब जैन दिवाकरजी महाराज शौचार्थ पधार रहे थे, तब कुछ वेश्याओं ने साहस बटोरकर आपश्री से कहा - 'मुनिवर ! आपने वेश्यानृत्य बंद करा दिया, इससे तो हमारी रोजी छिन गई। अब हम क्या करें आप ही हमें मार्ग बताइए ।"
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आपने महिलाजाति के देवीस्वरूप, मातृ-पद का गौरव बता कर वेश्याओं के दिमाग में यह बात जचा दी कि अश्लील नृत्य-गान आदि कुत्सित एवं कलंकित कर्म को छोड़कर सात्त्विकवृत्ति से जीवनयापन करना ही श्रेष्ठ है ।" अतः वेश्याओं ने आपकी प्रेरणा पाकर अपने कलंकित जीवन का परित्याग करके श्रमनिष्ठ सात्त्विक जीवन जीने का संकल्प किया ।
वि० सं० १६८० में पाली में वेश्यावृत्ति पर आपने अपने प्रवचनों द्वारा कठोर प्रहार किये, तब वहाँ की 'मंगली' और 'बनी' नाम की वेश्याओं ने वेश्यावृत्ति को तिलांजलि देकर आजीवन शीलव्रत धारण कर लिया 'सिणगारी' नाम की वेश्या ने एक पतिव्रत स्वीकार किया ।
वि० सं० २००५ के जोधपुर वर्षावास में आपके प्रवचन सुनने के लिए अनेक वेश्याएँ ( पातरियाँ) आती थीं । आपके प्रवचनों से अनेक वेश्याओं के हृदय में ऐसी ज्ञानज्योति जगी कि उन्होंने इस निन्द्य एवं घृणित पेशे को सर्वथा तिलांजलि दे दी। कुछ वेश्याओं ने मर्यादा निश्चित कर ली ।
यह था जैन दिवाकरजी महाराज का समाज सुधारक एवं पतित-पावन होने का ज्वलन्त
प्रमाण ।
म तक भोज की कुप्रथा का त्याग
मृतक भोज समाज की आर्थिक स्थिति को कमजोर करके समाज के मध्यम या निम्नवर्ग के लोगों को जिंदगीभर कर्जदार करके उन्हें अभिशप्त करने वाली कुप्रथा है । जिस समाज में यह कुप्रथा प्रचलित है, वहाँ धर्म ध्यान के बदले आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान में ही प्रायः वृद्धि होती देखी गई है ।
समाज-सुधार के अग्रदूत श्री जैन दिवाकरजी महाराज ऐसी ही अनेक सामाजिक कुप्रथाओं से होने वाली हानियों से पूरे परिचित थे । अतः कई जगह आपने उपदेश देकर इस कुप्रथा को बंद
कराया ।
घोड़नदी और अहमदनगर में अनेक लोगों ने मृतकभोज में सम्मिलित न होने तथा न करने का नियम लिया ।
समाज को स्वधर्मी वात्सल्य की ओर मोड़ा
समाज में दान के प्रवाह को सतत जारी रखने तथा कुरूढ़ियों और कुरीतियों में तथा दुर्व्यसनों में होने वाली फिजूलखर्ची को रोककर उस प्रवाह को स्वधर्मी वात्सल्य की ओर मोड़ने का अथक प्रयास किया । स्वधर्मी वात्सल्य की आपकी परिभाषा सहधर्मी भाई-बहन को एक वक्त भोजन करा देने तक ही सीमित नहीं थी । अतः आप साधर्मी भाई-बहनों को तन, मन, धन एवं साधनों से सब तरह से सहायता करने की अपील किया करते थे ।
वि० सं० १९८८ का बम्बई चातुर्मास पूर्ण करके आप नासिक की ओर बढ़ रहे थे ।
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