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| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : २६८ :
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पहली शर्त 'न्यायोपात्त धनः' है, न्याय-नीति से धन कमाना ही श्रावक उचित समझता है।" येथे मुनिश्री के भाव । आजकल परिग्रह और लूटखसोट में लोग लगे रहते हैं। मिलावट के विषय में उन्होंने कहा था-"मिलावट करना घोर अनैतिकता है । व्यापार-दृष्टि से भी यह कोई सफल नीति नहीं है । अगर सभी जैन व्यापारी ऐसा निर्णय करलें कि हम प्रामाणिकता के साथ व्यापार करेंगे और किसी प्रकार का धोखा न करते हुए अपनी नीति स्पष्ट रखेंगे तो जैनधर्म की काफी प्रभावना हो, साथ ही उन्हें भी कोई घाटा न हो।" मुनिश्री समाज में फैले भ्रष्टाचारों को समाप्त करने के लिए कृतसंकल्प थे। यह उनके एक युगपुरुष होने का प्रमाण है। उन्होंने समाज को प्रत्येक प्रकार के शोषण से मुक्त करने का प्रयास किया।
भारत में अभी तक पूर्णत: मद्य-निषेध न होने के कारण युवावर्ग में चारित्रिक दुर्बलता पनपती जा रही है। देश की गरीबी, अशिक्षा, बेकारी में मद्य का विशेष हाथ रहा है । श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने कहा था कि यदुकुल और साथ ही द्वारिका का नाश करने वाली मदिरा ही तो है । लोक में निन्दा, परलोक में दुःख इसी के प्रताप से होता है। शराबी का घर तबाह हो जाता है। शराब सौभाग्य रूपी चन्द्रमा के लिए राह के समान है। वह लक्ष्मी और सरस्वती को नष्ट करने वाली है। नाथद्वारे में श्रीनाथजी को ५६ भोग चढ़ाये जाते हैं मगर उसमें मदिरा नहीं होती। पतितोद्धार व अन्त्यजों में अहिंसा :
भारतीय समाज से अस्पृश्यता एक ऐसा कलंक है जो आज तक नहीं मिटा। उन्होंने जातिगत एकता और सामंजस्य पर विशेष बल दिया। एक सच्चे युगपुरुष के रूप में उन्होंने पतितों का उद्धार किया। उनकी मान्यता थी कि जैनधर्म यह नहीं मानता कि एक वर्ण जन्म से ऊंचा होता है दूसरा जन्म से नीचा होता है । जैन संस्कृति मनुष्यमात्र को समान अवसर प्रदान करने की हिमायत करती है । जैनधर्म अस्पृश्यता का विरोधी है, समानता का पक्षपाती है-"समयाए समणो होई"-सभी को समान रूप से आत्मकल्याण की ओर प्रेरित करना है । गांधीजी ने हरिजनों के उद्धार का बीड़ा उठाया था, उससे पूर्व ही श्री चौथमलजी महाराज ने 'पतितोदय' या 'पतितोद्धार' के कार्य को उठाया था। मुनिश्री ने अपने ओजपूर्ण भाषणों द्वारा अन्त्यजवर्ग की हिंसा मांस-मद्यसे वन-वृत्ति को नष्ट किया। उन्हें अनेक दुर्व्यसनों से मुक्ति दिलाई। अनेक भील, खटीक अहिंसक बने । राष्ट्रधर्म के प्रेमी :
मुनिश्री ने आत्मिक धर्म के उत्कर्ष के लिए राष्ट्रधर्म को अपनाने पर विशेष बल दिया। एक योग्य नागरिक के नाते राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना ही राष्ट्रधर्म है और राष्ट्र धर्म का भलीभांति परिपालन करने वाले ही अध्यात्मधर्म को-आत्मिकधर्म को अंगीकार कर सकते हैं। जो व्यक्ति राष्ट्रधर्म का अनुपालन नहीं कर सकता वह आत्मिक धर्म का भी आचरण नहीं कर सकता । सामाजिक पर्यों को भी उन्होंने राष्ट्रधर्म व आत्मिक धर्म की उन्नति में महत्वपूर्ण माना है। उन्हीं के शब्दों में--"राखी का कोरा धागा बाँधने से काम नहीं चलेगा। अगर रक्षाबन्धन को वास्तविक रूप देना है तो भाई, भाई की रक्षा करे, पड़ोसी की, गांव-नगर की, राष्ट्र की रक्षा करे। जैसे दीपावली पर मकान का कूड़ाकचरा साफ करते हो और उसे साफ-सुथरा बनाते हो, इसी प्रकार आत्मा को भी, अपने चित्त को भी निर्मल स्वच्छ बनाओ। आत्मा को शुद्ध करो। अन्तस्तल में घुसे अन्धकार को नष्ट करने का उद्योग करो, भीतर की मलिनता को हटाओ।"
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