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: २६६ : युग-पुरुष जैन दिवाकरजी महाराज
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ |
अहिंसा-ज्योति का प्रसार श्री जैन दिवाकरजी महाराज के अहिंसा-प्रसार को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना समीचीन होगा। सम्भवत: इस शताब्दी से अहिंसा का प्रसार-प्रचार जितना मुनिश्री ने किया उतना अन्य किसी महापुरुष ने नहीं किया। विज्ञान ने सब कुछ दिया परन्तु लोगों की सुबुद्धि में तनिक भी परिष्कार व उन्नति नहीं हुई। मनुष्य आज भी हिंसक पशु बना हुआ है। हिंसा में अशांति की भयंकर ज्वाला छिपी है। उन्होंने अनेक स्थानों पर अहिंसा व जीवदया पर मार्मिक भाषण दिये जिनसे प्रभावित होकर अनेक लोगों ने हिंसा का, शिकार करने का, मांसाहार का परित्याग कर दिया था। उदयपुर, अलवर, जोधपुर, शिकारपुर, किशनगढ़, करेड़ा, ताल, घटियावली, कोशीथल आदि जगहों के नरेशों, ठाकुरों ने हिंसा का परित्याग किया था। सं० १९८० इन्दौर में उनका सारगभित भाषण सुनकर नजर मुहम्मद कसाई ने जीव-हत्या का त्याग कर दिया। पालनपुर (गुजरात) के नवाब सर शेरमुहम्मद खाँ बहादुर ने मुनिवर की धर्मचर्चा सुनकर उन्हें एक दुशाला भेट करना चाहा, इस दान के बदले में उनसे अहिंसा का दान मुनिजी ने मांगा और इसके बाद नवाब साहब ने मांसशराब को त्याग दिया। रतलाम और देवास तथा बनेड़ा आदि नरेशों ने-ठाकुरों ने उनके प्रवचनों से प्रभावित होकर जीवदया के सरकूलर निकाले । सन् १९३५ में उदयपुर के महाराणा फतेहसिंह जी व भूपालसिंहजी ने अहिंसा-प्रेम को अपनाया।
उन्होंने कहीं 'गौरक्षा' पर व्याख्यान दिया, तो कहीं बलिप्रथा को बन्द कराया । मन्दसौर में सं० १९७६ में जाकर कन्या-विक्रय, बालविवाह, वृद्धविवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों का उच्छेदन किया । उनकी दृष्टि से छोटी से छोटी बुराई तक नहीं छिपी थी। एक महापुरुष के रूप में समाज को धर्मपरायण बनाने का उन्होंने भरसक प्रयत्य किया, शील और सदाचार का सर्वत्र प्रचार किया।
विदेशी प्रशंसक जैन दिवाकरजी महाराज के समता, उदारता, निस्पृहता, मित्रता, सहिष्णुता, सत्यवादिता, कर्तव्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा, सच्चरित्रता का उपदेश सुनकर कुछ विदेशी भी काफी प्रभावित हुए। उदयपुर के रेवेन्यू कमिश्नर चेनेविक्स ऐच उनके बहुत प्रशंसक थे। ट्रेंच साहब के नौकर ने मुनि जी के प्रवचन सुनकर बुरी आदतें छोड़ दी थीं। नेत्र विशेषज्ञ डा० होमरसजी पारसी जावरा में प्रतिदिन उनके व्याख्यान सुनते थे। अंग्रेज चीफ कमाण्डर ने तो अण्डों का सेवन ही छोड़ दिया था। चित्तौड़ मे अफीम विभाग के आफीसर एम० जी० टेलर उनके प्रवचनों से विशेषतः प्रभावित थे। जैनधर्म के विषय में उन्होंने कहा था-"मेरा विश्वास है कि यह धर्म भोगप्रधान होता तो मोक्ष की ओर ले जाने वाला न होता । संसार से मुक्ति चाहने वाले मनुष्य को तो जैनधर्म की ही शरण लेनी पड़ेगी।" स्वातंत्र्योत्तर भारत के नव-
निर्माण में भौतिक समृद्धि के उपादानों पर ही हम ध्यानकेन्द्रित किये हैं । बाह्य सुख-साधनों के जुटाने में खून-पसीना बहा रहे हैं । देश को-मनुष्य को बाहर से बना रहे है, लेकिन भीतर से तोड़ रहे हैं-निष्प्राण बना रहे हैं। आज का मनुष्य मिस्र की ताबुत में रखी 'ममी' बनकर रह गया है। परिग्रहों के व्यामोह बढ़ते जा रहे हैं, अहंकार का विषधर फुकार रहा है । यह मान्य है कि भौतिक समृद्धि राष्ट्र का शरीर है, लेकिन बिना आत्मा के शरीर का क्या महत्व । आध्यात्मिक समद्धिविहीन भौतिक समृद्धि आत्म-प्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ
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