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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें
महामहिम जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज
| अखिल भारतीय श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस के स्वर्णजयन्ती ग्रन्थ (सन् १९५६ ) में स्थानकवासी जैन-परम्परा के उन्नायक महामहिम जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज का परिचय इन शब्दों में दिया गया है ।]
जन्म-जन्मान्तर में संचित प्रकृष्ट पुण्य लेकर अवतरित होने वाले महापुरुषों में प्रसिद्ध व्याख्याता जैन दिवाकर मुनि श्री चौथमलजी महाराज का शुभ नाम प्रथम अंकित होने योग्य है । आपने अपने जीवन काल में संघ और धर्म की सेवा एवं प्रभावना के लिए जो महान् स्तुत्य कार्य किये, वे जैन इतिहास में स्वर्ण-वर्णों में लिखने योग्य हैं । हमारे यहाँ अनेक बड़े बड़े विद्वान्, वैराग्यवान्, वक्ता और प्रभाविक सन्त हुए हैं, परन्तु जैन दिवाकरजी महाराज ने जो प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा प्राप्त की वह असाधारण है । राजा-महाराजा, अमीर-गरीब, जैन-जैनेतर सभी वर्ग आपके भक्त थे । उत्तर भारत और विशेषतः मेवाड़, मालवा तथा मारवाड़ के प्रायः सभी राजा-रईस आपके प्रभावशाली उपदेशों से प्रभावित थे । मेवाड़ के महाराणा आपके परम भक्त रहे । पालनपुर के नबाब, देवास नरेश आदि पर आपकी गहरी छाप पड़ी । अपने इस प्रभाव से जैन दिवाकरजी महाराज ने इन रईसों से अनेक धार्मिक कार्य करवाये ।
जैन दिवाकरजी महाराज अद्वितीय प्रभावशाली वक्ता होने के साथ उच्चकोटि के साहित्य निर्माता भी थे । गद्य-पद्य में आपने अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया, जिनमें निर्ग्रन्थ प्रवचन, भगवान महावीर की जीवनी, 'पद्यमय जैन रामायण', मुक्ति पथ आदि प्रसिद्ध हैं । आप द्वारा निर्मित पदों का 'जैन सुबोध गुटका' नाम से एक संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है ।
संयोग की बात देखिए कि रविवार (कार्तिक शु० १३, सं० १९३४) को आपका जन्म हुआ, रविवार (फाल्गुन शु० ५ सं. १६५२) को आपने दीक्षा अंगीकार की और रविवार (मार्गशीर्ष शु० ६ सं० २००७) को ही आपका स्वर्गवास हुआ । सचमुच रवि के समान तेजस्वी जीवन आपको मिला। रवि के सदृश ही आपने ज्ञानलोक की स्वर्णिम किरणें लोक में विकीर्ण कीं और अज्ञानान्धकार का विनाश किया।
आपके पिता श्री गंगारामजी तथा माता श्री केसरबाई ऐसे सपूत को जन्म देकर धन्य हो गए। नीमच ( मालवा ) पावन हो गया ।
चित्तौड़ में आपके नाम से 'श्री चतुर्थ जैन वृद्धाश्रम' नामक एक संस्था चल रही है। कोटा में आपकी स्मृति में अनेक सार्वजनिक संस्थाओं का सूत्रपात हो रहा है ।
दिवाकरजी महाराज जैन संघ के संगठन के प्रबल समर्थक थे । अन्तिम जीवन में आपने संगठन के लिए सराहनीय प्रयास किये । दिगम्बर मुनिश्री सूर्यसागरजी, श्वे० मूर्तिपूजक मुनिश्री आनन्दसागरजी और आपके अनेक जगह सम्मिलित व्याख्यान हुए । यह त्रिपुटी सम्मिलित विहार करके जैन समाज में एकता का शंखनाद करने की योजना बना रहे थे, पर काल को यह सहन न हुआ । दिवाकरजी महाराज का स्वर्गारोहण हो गया । फिर भी आप स्थानकवासी सम्प्रदाय के श्रमण संघ की जड़ जमा ही गये ।
निस्सन्देह जैन दिवाकरजी महाराज अपने युग के असाधारण प्रतिभाशाली - महान् सन्त 1 जगत् आपके उपकारों को जल्दी भूल नहीं सकता ।
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