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श्री जैन दिवाकर स्मृति - ग्रन्थ
[जैन दिवाकर स्मृति निबन्ध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार प्राप्त निबन्ध ]
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : २६२ :
युग-पुरुष जैन दिवाकर जी महाराज
* प्रो० निजामउद्दीन (इस्लामिया कालेज, श्रीनगर )
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संत असंतन्हि के असि करनी । जिमि कुठार चंदन आचरनी ॥ काटइ परसु मलय सुनु भाई । जिन गुन देइ सुगन्ध बसाई ॥ ताते सुर-सीसन चढत, जगवल्लभ श्रीखंड । अनल दाहि पोटत धनह, परसु-बदन यह दण्ड ॥ विषय अलंपट सील गुनाकर । पर दुख दुख, सुख सुख देखे पर ॥ सम अभूतरिषु विमद बिरागी । लोभामरण हरष भय त्यागी ॥
[ रामचरितमानस उत्तरकाण्ड ]
तुलसीदास ने उपर्युक्त पंक्तियों में संतपुरुष को चन्दन -सदृश माना है, जो अपने स्वभाववश काटने वाली कुल्हाड़ी को अपनी सुगन्ध से सुवासित करता है। संत विषय निर्लिप्त, शील-सद्गुणाकार, पराये के सुख से सुखी तथा दुःख से दुःखी, समभाव रखने वाले, किसी से शत्रुता नहीं, मदविहीन वैराग्यवान्, लोभ-क्रोध-हर्ष-भय का परित्याग करने वाले होते हैं । 'जगवल्लभ', 'प्रसिद्धवक्ता', 'जैन दिवाकर' मुनिश्री चौथमलजी महाराज इसी प्रकार के लोकनायक संतात्मा थे । श्रमण संस्कृति की उत्कृष्टताओं तथा जिनेन्द्र महावीर के महान् लक्ष्यों- आदर्शो उपलब्धियों के जीवन्त - ज्वलन्त प्रतीक थे । वाणी एवं चारित्र की एकरूपता द्वारा उन्होंने सामाजिक जीवन के कटाव-क्षरण को सफलता के साथ रोका, शैथिल्य तथा प्रमाद के मेघ खण्डों को विदारित किया और सांस्कृतिक व नैतिक जीवन क्षेत्र को अपनी सुनहली किरणों से संजीविनी प्रदान की । वह एक 'मर्देकामिल' थे - सम्पूर्ण पुरुष थे, भारतीय ऋषि परम्परा के एक महान् संत थे— युगपुरुष थे । उनका व्यक्तित्व सर्वतोभद्र सर्वोदयी था ।
जैन दिवाकरजी महाराज आगम की भाषा में-- 'महकुम्मे महुपिहाणे - मधुकुम्भ की भाँति भीतर-बाहर चिर मधुर और 'णवणीय तुल्लहियया' - नवनीत के समान कोमल हृदय थे । तेजोमय मुखमंडल, शांत मुद्रा, प्रशस्त भाल, आँखों में तैरती श्रमण संस्कृति की दिव्य ज्योति, हृष्ट-पुष्ट देह, गेहुँआ रंग, कर्मयोग के प्रेरक, निःस्पृही, वीतरागी, वाग्मिता व चारित्र के धनी, सम्यक् ज्ञान-दर्शन- चारित्र में तप कंचन चरित्र, सामाजिक सौहार्द तथा समन्वय के उद्घोषक, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के ( Co-existence ) प्रचारक, मूक प्राणियों को अभयदान दिलाने वाले, अहिंसा की गंगा प्रवाहित करने वाले, धार्मिक सहिष्णुता और पतितोद्धार की ध्वजा फहराने वाले, पारदर्शिनी ज्ञानदृष्टि सम्पन्न - यह था श्री चौथमलजी महाराज का विराट् व्यक्तित्व — सर्वथा युगपुरुष सम्मत |
युगपुरुष उस महान् व्यक्ति को कहते हैं जो अपने लिए नहीं वरन् सम्पूर्ण युग के लिए, सकल प्राणियों के लिए जीता है— जीव-हित समर्पित होता है। सभी के लिए अहर्निश कल्याण
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