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: २३५ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम
|| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
दिवाकर-पचील.०००००
[१]
नि
दिव्य-दिवाकर दिव्य-विभूति,
दिव्य-देशना पथ - दर्शक । दिव्य तेजस्वी चौथमुनि जी,
बने जगत् में आकर्षक ।
4 श्री विजय मुनि 'विशारद' [मेवाड़भूषण श्री प्रतापमलजी महाराज के शिष्य]
[२] सुरभि युत शुभ सुमन चमन में, ___ खिलता है आनन्द दाई । वैसे ही गुरुवर की महिमा, जीवन में गौरव लाई ॥
[४] केशर पिसकर रंग देती है,
जिसको जग ने शुभ माना । वैसे ही पंच महाशील से
अपनापन भी पहचाना ॥
नीर निरन्तर रहे प्रवाहित,
करता है सरसब्ज धरा। धन्य-धन्य सुत गंगाराम है, हीरालाल गुरुवर निखरा ॥
मनुज अरे क्या महा मनुज थे,
उसमें भी थे महा मुनिवर । सम्प्रदाय से मुक्त मनस्वी,
सफल-सबल शासक गुणिवर ॥
सम्बत् उन्नीसौ चौंतीस का,
सूर्योदय लेकर आया । वंश चोरडिया उज्ज्वल करने दिवाकर ये प्रगटाया।
[] फाल्गुन शुक्ला दसमी चौपन,
मंगलकारी है प्रियकार । रविवार की सुखद घड़ी में, बने आप त्यागी अणगार ॥
[११] बने विज्ञ-विद्वान आप पर, ___ गर्व नहीं जिनको लवलेश । सागर से गम्भीर आप थे,
महा मनस्वी मुनि महेश ॥
'नीमच' नगरी पुण्य पुंज है,
जहाँ जन्म गुरु ने पाया। माता 'केशर' का मन फूला, देख-देख कर हरषाया ॥
[] योग्य पिता के योग्य पुत्र थे,
शिक्षा का पाया शुभ योग । मिला सुहाना संस्कारों का, जिनको सुखदाई संयोग ।
[१०] गुरु सेवा-भक्ति से पाया, __अतुल ज्ञान का जो नवनीत। सरल सौम्य पाई आकृति-, कोई नहीं होता भयभीत ॥
[१२] जैनागम के ज्ञाता पूरे,
गीता - महाभारत जानी। रामायण कुरान भागवत्,
पुरान गुलिस्तां-विज्ञानी ॥
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