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: २५१ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम
श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
नयान्विता तस्य मुनः मतिः सदा दधार दिव्यां प्रतिभासभाङ्गणे । अतो जगद्वल्लभतामुपागतो दिवाकरइचौथमलो मुनीश्वरः ॥ थो सभा में प्रतिमा विलक्षण सर्वनय व्याख्यान में । अतएव जगवल्लभ बने श्री चौथमल सर्वलोक में ।। १८ ।। गुदरिष्ठो विबुधाधिपाश्रयाद् बुधोवरिष्ठो वसुधाधिपाश्रयाद् । अनाश्रयेणैव बभूव पूजितो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ सुरराज आश्रय से वृहस्पति बुधवरिष्ठ नरेन्द्र से आश्रय बिना पूजित हुए श्री चौथमल देवेन्द्र से ॥ १६ ॥ गुणं गृहीत्वेक्षु रसस्य जीवनं प्रसून गन्धञ्च समेत्यराजते । परन्तु दोषोज्झित सद्गुणैरथं दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ पा पुष्प गन्ध विराजते जल इक्षु के माधुर्य से । पर चौथमल मुनिराज तो निर्दोष सद्गुण पुञ्ज थे ||२०|| स संशयस्थान् विषयान् विवेचयञ्जिनेन्द्र सिद्धान्त विदां समाजे । चकार सम्भाषण मोहितान् जनान् दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ संदिग्ध पद व्याख्यान कर शास्त्रज्ञ जैन समाज में । भाषण विमोहन की कला थी चौथमल मुनिराज में ॥ २१ ॥ अपंडितास्सन्त्वथवा सुपण्डिताः विवेकिनस्सन्त्व विवेकिनोऽथवा । स्वभावतस्तं सततं समेऽननमन् दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरम् ॥ पण्डित अपण्डित या विवेकी सर्वजन सामान्य हो । थे भाव से करते नमन श्री चौथमल को नम्र हो ॥ २२ ॥ नमस्कृतोऽपि प्रणतः क्षमापना मयाचत प्राणभृतः सभावनः । विरोध बुद्धि व्यरुणत् स्वतो मिथो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ जन प्रणत थे पर वे सदा जन से करें याचन क्षमा । था विरोध नहीं परस्पर चौथमल में थी क्षमा ॥२३॥ यथास्वरूपं प्रविहाय कीटकाः विचिन्तनाद भ्रामररूपमद्भुतम् । समाश्रयन्ते यतिस्तथा दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ ज्यों कीट अपना रूप तज चिन्ता निरत अलि रूप को । पाता यतन करते मुनि त्यों चौथमल निज रूप को ॥२४॥ प्रगर्तकम् । मुनीश्वरः ॥
तमः स्वरूपं सुजनैविगर्हितं विरागभूमि कुगतिं स्वकर्मरूपं कलयन् कदर्थय दिवाकरश्चौथमलो तमरूप अति सज्जन विनिन्दित कुगतिप्रद वैराग्यभू । करते कदर्थन कर्म को श्री चौथमल मुनिवर प्रभू ॥२५॥
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प्रकृष्ट तीर्थंकर दृष्टसत्पथाऽ श्रयाज्जनस्सर्वसुखं समेधते । इतीह सिद्धान्तमवाललम्बत दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ।। श्रेष्ठ तीर्थंकर विलोकित पथगमन सब सुख मिले। कहते सदा यह चौथमल सिद्धान्त का अवलम्ब ले ॥२६॥
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