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: २५३ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम
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अप्राप्त वैराग्य जिनोक्त सत्पथ प्रयाण कामा बहवः सुशिक्षिताः । सुशिष्य लोका सततं सिषेविरे दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरं ॥ पाकर विराग जिनेन्द्र नय में गमन करना चाहते । थे सुशिक्षित शिष्यगण मुनि चौथमल को सेवते ॥ ३६ ॥ निशीथिनी नाथ महस्सहोदरं विभ्राजते स्माम्बरमस्य पाण्डुरम् । जनाः स्ववाचो विषयं स्वकुर्वते दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरं ॥ थे निशाकर के सहश अम्बर युगल शित शोभते । जन दिवाकर चौथमल मुनि के विषय में बोलते ॥ ३७ ॥ नवलेशोऽपि बभूव जातुचित्, प्रशासति स्थानकवासि मण्डलम् । जना न तस्मिञ्जहति स्म सत्पथं दिवाकरं चौथमले मुनीश्वरे ॥ जब जैन मण्डल शासते थे भेद नहीं किंचित कहीं । नहि छोड़ते सन्मार्ग को वे चौथमल जब तक यहीं ॥ ३८ ॥
श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
थे ॥ ३६॥
वणिग्जना न्याय्य पथानुवर्तनाद् प्रकामवित्ताजित लब्ध सत्क्रिया । बभुः स्वधर्मेण गुरौ प्रशासके दिवाकरे चौथमले मुनीश्वरे ॥ थे वैश्यगण अतिशय धनी सत्कार पाते न्याय से । थे शोभित निज धर्म से श्री चौथमल जब ज्याय न दुःखदारिद्र्य भवायकश्चन प्रधर्षिता ज्ञानतमः समन्ततम् । उपास्य भक्तेह चरित्रशालिनम् दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ पाते न दुःख दरिद्रता चारित्र शाली जन सभी । अज्ञान नाशक चौथमल गुरु को नमन करते जंमी ॥४०॥ चकार हिंसान्त चौर्य प्रवञ्चना कामरतांश्वमानवान् । जिनेन्द्र सिद्धान्त पथानुसारिणो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ चोरी अनृत हिंसा प्रवञ्चन काम चरत जो लोग थे । सब त्याग जिन पथ रत हुए जब चौथमल उपदेशते ॥ ४१ ॥ जना वदन्तिस्म मदुस्वभावो नृदेहधारी सुरलोकनायकः । इहागतो धर्म प्रचार कारणाद्दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ नर देहधारी देवनायक जैनधर्म पसार ने । आये यहाँ हैं लोग कहते चौथमल जग तारने ॥४२॥ कुरुध्वमाज्ञां मनुजाः ! कृपालोमहेन्द्र देव प्रमुखैर्नृतस्थ । जिनेश्वरस्येति दिदेश सर्वदा दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ हे मनुज देव महेन्द्र युत जिनदेव की आज्ञा करो । थे चौथमल उपदेश ते भवदुःख सागर से तरो ॥४३॥ अनित्यभूतस्य कलेवरस्य त्यजध्वमस्योपरमाय वासनाम् । समान स लोकानिति संदिदेश दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ नश्वर कलेवर मुक्ति हित निज त्याग दो सब वासना । देते दिवाकर चौथमल नरलोक को यह देशना ||४४ ॥
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