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: २३६ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम
श्री अर्हत्कृपया विशामयितु मा जग्मुर्भुवं भावुकाः चौर्यच्छद्ममनुष्यवेषमपिधायात्मीयतां द्यामिवाऽ- ॥७॥ थप्राचीनयुगे यथा भुवि सुराश्चित्रं चरित्रं गुरोः मध्यं लोकमुपागतस्य परया भक्त्याऽऽस्तुमेवाक्षिभिः । लब्धु भूरि सुखं तथैव दिविषयूथोऽर्यगेहं ययौ जीवाऽऽनन्त्यभवान्विविक्त पथगान्कैवल्यमाप्तु सुखम् ।।८।। मन्दं मन्दमसौ मधव्य वचनैरोवोढ हव्यादवत् हात्वाऽष्टादशवर्ष आयुषि गृहं दीक्षां गृहीत्वा मुनी-॥ राष्ट्र राजत भारते सशरदां षट्के मरुत्संयुते जय्यं यस्य समस्त भूतलमनस्त्वासीद्वचो-गंगया ॥६॥ कोतिर्यस्य ससार सागरदिशां सीमानमुल्लङध्य च जग्ध्वा नीलतलं नभः खगतलेष्वाकाशते चन्द्रवत् ।। यस्याभूच्चरितं सुगन्धिसुमनः कुन्दारविन्दे इव होतेव भ्रमरान्द्विजान्यदवसङ कृष्यस्थितं भूरिव ॥१०॥ गोपीकृष्ण कृतं वचः सुमनसां गुच्छं गले धारयेत् पोनः स्यान्मनसि स्वयं स पुरुषः सत्सङ्गतौ भक्तिमान् ।। कृत्वा सर्वशुभानि धर्मचरितान्यादाय पुण्यं वितृष्णः सज्ज्ञानरतः कुसङ्ग-विजयी विभ्राडिवाऽऽदीव्यति ॥११।।
भावार्थ ॐ अपने विजयशील चरित्र स्वरूप रथ पर आरूढ़ होकर जिसने नये और पुराने सभी वर्गों के मानव मन पर विजय प्राप्त की, और अपनी सच्ची कीति-पताका फहराते हुए विश्वसाहित्य के गहन अध्ययन तथा विशिष्ट रूप से जैनागमाऽध्ययन द्वारा प्रखर वाग्मिता-धन प्राप्त कर विश्व के प्रवक्ताओं में अग्रस्थान-लाभ किया, वह श्री चौथमलजी महाराज जनमानस में निरन्तर जीवित रहें ।।१।। जिसने, कदाचित् स्वभाववश शिष्टजनों के मन में कहीं कटुता आ गई तो उसे अपने सत्य और मधुर वचनों द्वारा इस प्रकार धो दिया जिस प्रकार सिन्धुनद का प्रवाह कीचड़ को धो देता है और जन-जन के मन को अनुरञ्जित करते हुए उन्हें मानवत्व का पाठ पढ़ाया वह श्री चौथमलजी महाराज सदा निर्मल गङ्गाजल की भाँति प्रवाहि होते रहें ।।२।।
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