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: २२५ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-मरा प्रणाम
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
अभिनन्दन
श्रीमती कमला जैन (वीर नगर, दिल्ली)
संतजन विश्व की महान विभूति होते हैं, ऐसी विभूति जो कभी नष्ट नहीं होती। जिसकी छत्र-छाया में प्राणीमात्र सुख और आनन्द का अनुभव करता है। संतों के चरण जहाँ पड़ते हैं, वहाँ की मिट्टी भी सोना उगलने लगती है । उनके तप-संयम की पावन सुगन्धि से दूर-दूर का वातावरण पावन और सुगंधित हो जाता है।
श्री चौथमलजी महाराज ऐसे ही महान् सन्त थे। जिन्होंने अपने तन, मन और वाणी से दुःखी मानव को सुख का पथ दिखलाया। जन-जन में अध्यात्म-जागृति उत्पन्न की। उनकी वाणी में जादू का सा प्रभाव था। उनके प्रवचनों को सुनकर कई दस्युओं और वेश्याओं ने अपना सुधार किया। राजाओं के राज-प्रासादों और भीलों की कुटियों में अहिंसा का प्रचार करना उन्हीं का कार्य था। कई विद्यालयों और वात्साल्य-फण्ड की स्थापना उन्हीं के उपदेशों द्वारा हुई।
समाज सुधार के लिये जो कार्य उन्होंने किया वह अनुपम है । परम्परा से चले आते अन्धविश्वासों और रूढ़ियों को उन्होंने समाप्त करवाया। बाल-विवाह और वृद्ध-विवाह जैसी कुप्रथाएँ सदा के लिये बन्द हो गई। कन्या-विक्रय और मृतक-भोज बन्द हये। समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का उनका भागीरथ प्रयत्न सदा स्मरणीय रहेगा।।
उन्होंने गांव-गांव भ्रमण कर अपने कष्टों की परवाह न करते हुये जन-जन का कल्याण किया। उनके कई शिष्य बनें, जो आज भी उन्हीं की भांति जन-जागरण करते हये उनके नाम को जीवित रखे हुये हैं।
आज उनकी जन्म-शताब्दी पर, उस युग-पुरुष को स्मरण कर, उनके महान् कार्यों को स्मरण कर नतमस्तक वन्दन करते हैं. अभिनन्दन करते हैं।
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भारत के नूर थे
* पं० जानकीलाल शर्मा मोह-ममता को छोड़ा साधु का बाना पहना ।
काम, क्रोध, मद, लोभ जीतने में शूर थे। वाणी में ओजस्विता, तेजस्विता दिदार में थी।
कलह अशांति से, रहते सदा दूर थे। सरलता को सोम्यता को, रखते सदैव पास ।
अधर्म को पापों को, करते चूर-चूर थे ।। जानकी शर्मा कहे, ज्ञानमयी दिवाकर ।
जैन संघ के ही नहीं, भारत के नूर थे।
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