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: २१५ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति मरा प्रणाम
श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ
दुखियारों के परमसखा
यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि समन्वय के महान प्रेरक जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज की जन्म शताब्दी मना रहे हैं।
महाराजश्री का जीवन एकता, मंत्री, शान्ति और वत्सलता की विजय का अपूर्व शंखनाद था। वे पतितों दुखियारों के परमसखा थे। उनका जीवन पढ़ कर हमें मार्ग-दर्शन प्राप्त होगा। मैं हार्दिक सफलता चाहता है। -प्रतापसिंह वेद, बम्बई (अध्यक्ष भारत जैन महामण्डल')
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वात्सल्य के प्रतीक
दिल्ली में मुनिधी चौथमलजी महाराज के चातुर्मास हुए उस समय उनके कई बार प्रवचन सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। उनकी वाणी द्वारा भगवान् महावीर के मुख्य-मुख्य आदर्श की व्याख्या सुनने को मिली। उनके व्याख्यान ओजस्वी और हृदयस्पर्शी होते थे। उनके प्रवचन खंडनकुतर्क आदि से अछूते रहते थे। उन्होंने सदैव सामाजिक एकता और वात्सल्य को सुदृढ़ बनाने का प्रयास किया। वे लोकंषणा से कोसों दूर थे। उन्होंने पद-प्रतिष्ठा आदि को महत्व नहीं दिया । जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज का जीवन हमारे लिए प्रेरणा-स्रोत है। मैं अपने श्रद्धा सुमन उनके चरणों में समर्पित करता हूँ । -भगतराम जैन, दिल्ली
जाज्वल्यमान नक्षत्र
पूज्य जैन दिवाकरजी अपनी पीढ़ी के एक जाज्वल्यमान नक्षत्र थे । उनका जीवन स्वयं के लिए नहीं, मानवता के लिए उन्होंने जिया जिन्होंने उन्हें देखा और उनका सान्निध्य प्राप्त किया, वे तो उनसे प्रेरणा प्राप्त करते ही हैं, परन्तु भावी पीढ़ियां भी उस प्रेरणामृत का पान करके लाभान्वित हों, इस दृष्टि से आप का प्रकाशन सफल और यशस्वी हो। - सुन्दरलाल पटवा, मन्दसौर
एकता - संवेदना - करुणा की त्रिवेणी
जैन दिवाकर पूज्य मुनिश्री चौथमलजी के दर्शनों का सौभाग्य उनके कार्यों की सुवास एवं साहित्यसौरभ से आकर्षित अवश्य रहा हूँ दना और प्राणिमात्र के प्रति करुणा की त्रिवेणी उनके जीवन में थी। उस सन्तपुरुष के चरणों में हार्दिक वन्दना करता हूँ ।
तो मुझे नहीं मिला, किन्तु जैन एकता, मानवीय संवे
- चन्दनमल 'चांद', बम्बई
लोकोपयोगी मार्ग-दर्शन
भारतीय संस्कृति में सन्तों का बहुत बड़ा योगदान रहा है ।
उन्होंने झोंपड़ियों से महलों
तक पहुँच कर लोगों की धार्मिक एवं नैतिक जागृति की है। उन्हीं सन्तों की श्रृंखला में जैन दिवाकर, प्रसिद्ध वक्ता पूज्य श्री चौथमलजी महाराज भी है।
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उनके दर्शन का मुझे लाभ नहीं मिला, किन्तु उनके कार्य और साहित्य आदि को पढ़ने तथा सुनने से उनका व्यक्तित्व बहुत हो ऊंचा मालूम हुआ जो परिवर्तन शासन तथा कानून से मनुष्य के अन्तरंग में नहीं हो सका, वह उन महान् सन्त के लोकोपयोगी मार्गदर्शन से हुआ ।
वे एक महान् ओजस्वी वक्ता भी थे। उन्होंने महाराष्ट्र की भूमि को पावन करके लोकोद्वारक उपदेश दिये, जिसके हम सब ऋणी है।
उन महान् पुण्यात्मा की जन्म शताब्दी मनाने का निर्णय उचित और स्वागत योग्य है । उनके कार्य से लोगों की चारित्र्य शुद्धि हो और नैतिकता बढ़ती रहे, यही मेरी शुभकामना है। --- चन्द्रभान रूपचन्द डाकले, श्रीरामपुर (अहमदनगर)
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