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: ७६ : उदय : धर्म-दिवाकर का
| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
तो समता-रस के रसिक थे। निस्पृह भाव से चलते रहे । आगे एक रेलवे पुल आया। उसे पार करना जरूरी था।
सहसा पैसेंजर ट्रेन की गर्जना सुनाई पड़ी। कुछ लोग घबड़ाकर पीछे लोट गए, कुछ जल्दी-जल्दी पुल पार करने लगे और कुछ ने वहीं पुल पर ही सुरक्षित स्थान देखकर शरण ले ली। किन्तु आप तो धुन के धनी और निश्चय के पक्के थे। ईर्यापथ शोधते हुए गज-गति से चलते रहे । सीटी बजाती हुई ट्रेन निकट आ पहुंची। लोगों के दिल धक से रह गए । आपश्री ने अपना एक हाथ ऊंचा किया-मानो वाष्पशक्ति को रुकने का आदेश मिला। ट्रेन अत्यन्त धीमी चाल से चली और रुक गई। ड्राइवर आश्चर्य में डूब गया-'बिना ब्रेक लगाए इंजन कैसे रुक गया ? यात्रीगण डिब्बों से सिर निकालकर उत्सुकतापूर्वक देखने लगे। आपने पुल पार कर हाथ नीचा किया-जैसे इंजन को चलने का संकेत किया। गाड़ी चलने लगी और शीघ्र ही उसने गति पकड़ ली।
श्रद्धालु तो चकित थे ही। इंजन ड्राइवर और यात्री भी आपके प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हो गए। सभी ठगे से देख रहे थे । लेकिन आप तो अपनी सहज गति से ऐसे चले जा रहे थे जैसे कुछ हुआ ही न हो।
सवाई माधोपुर के कई भाई साथ में थे। आज भी उनमें से कुछ प्रत्यक्षदर्शी लोग हैं जो यह जानते हैं।
संवत् १९६३ का वर्षावास आगरा में हुआ। 'निग्रन्थ प्रवचन सप्ताह' आदि अनेक कार्यक्रमों से प्रभूत धर्म प्रभावना हुई। आपके प्रवचनों से लोगों में धर्म उत्साह जाग उठा।
__आगरा में लोहामंडी के बाद मानपाड़ा, धूलियागंज, बेलनगंज आदि में आपश्री के प्रवचन हए। सर्वत्र जनता में एक अपूर्व उत्साह उमड़ पड़ा था। हजारों अजैन भक्त डाक्टर, वकील, प्रोफेसर आदि भी इन सभाओं में प्रवचन सुनने आते थे।
आगरा से विहार कर आपश्री हाथरस पधारे । यहाँ जैन समाज के घर कम हैं, पर अजैन समाज में बड़ा उत्साह जाग उठा । बाजार में आपके प्रवचनों की धूम मच गयी। वहां से आप जलेसर पधारे।
चौर कर्म का त्याग जलेसर में आपश्री का सार्वजनिक प्रवचन हो रहा था। विषय था-चोरी का दुष्परिणाम। श्रोता मन्त्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। प्रवचन समाप्त होते ही एक व्यक्ति ने खड़े होकर कहा
"महाराज ! मुझे चोरी का त्याग करा दीजिए । मैं आज से चोरी कभी नहीं करूंगा।" उसके मुख पर पश्चात्ताप स्पष्ट था । आँखों में करुणा साकार थी, वे भींगी हुई थीं।
श्रोता-समूह ने मुड़कर पीछे की ओर देखा तो सभी चकित रह गए। वह व्यक्ति दुर्दान्त हत्यारा और बेरहम था। कितनी डकैतियां उसने डालीं, गिनती नहीं। इस समय निरीह बना करबद्ध खड़ा था।
__महाराजश्री ने उसे चोरी का त्याग कराया। लोग आपकी चमत्कारी वक्तृत्व-शक्ति के प्रति श्रद्धानत हो गए। उपस्थित जन धन्य-धन्य कह उठे।
बयालीसवाँ चातुर्मास (सं० १९६४) : कानपुर उत्तर प्रदेश के अनेक क्षेत्रों को स्पर्शन करते हुए कानपुर में वर्षावास करने से पहले आप लखनऊ पधारे। वहां सिर्फ एक ही स्थानकवासी जैन परिवार था। ४० वर्ष बाद लखनऊ में किसी
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