________________
: १६ : उदय : धर्म-दिवाकर का
|| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
जन-जन में व्याप्त संस्कार-स्मृति : एक झलक आज के युग में शोक-संवेदनाएं प्रगट करने का फैशन-सा हो गया है। विरोधियों के प्रति भी दो शब्द कहना आधुनिक शिष्ट और सभ्य समाज में आवश्यक-सा माना जाने लगा है, रीतिसी हो गई है यह, लेकिन वास्तविक संवेदना जन-हृदय का उद्गार होती है। ऐसी ही संवेदना स्मृति मौलाना नुरूद्दीन ने जैन दिवाकरजी के प्रति व्यक्त की थी। मौलाना मन्दसौर के निवासी थे और उनका पुत्र विक्टोरिया स्टेशन के पास बम्बई में घड़ीसाज का काम करता था। मौलाना एक बार बम्बई गए तो कांदावाड़ी जैन स्थानक के बाहर लगे मंडप को देखकर श्रावकों से पूछने लगे
"क्या बाबा साहब जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज आने वाले हैं। उनका व्याख्यान कब होगा, कितने दिन रुकेगे ? मुझे बता दें तो मुझ नाचीज को भी सुनने का मौका मिल जाया करेगा।"
"उनका तो कुछ साल पहले कोटा में स्वर्गवास हो चुका है।" श्रावकों ने शोक-भरे शब्दों में बताया।
___ "या खुदा ! यह तूने क्या किया ?" मौलाना का शोकाकुल स्वर निकला-"ऐसी रूहानी ताकत हम से जुदा हो गई। काश ! उस सच्चे फकीर का दीदार मुझे नसीब हो जाता । नेक दिल फरिश्ते तुझे मेरा सलाम ! बार-बार सलाम !!"
कहते-कहते मौलाना की आँखें टपक पड़ी, आवाज भर्रा गई। भारी कदमों से चले गए। मौलाना की ओर श्रावकगण देखते ही रह गए।
यह थी वास्तविक संवेदना, जो इस्लाम धर्म के अनुयायी मौलाना के दिल से जुबान पर आ गई थी।
इसी प्रकार का प्रसंग पंजाबकेसरी प्रखरवक्ता श्रद्धेय श्री प्रेमचन्दजी महाराज के जीवन में सं० २००६ में आया । वे अपने शिष्य परिवार के साथ कुंथुवास की ओर गमन कर रहे थे। मध्यप्रदेश के एक जंगल में मार्ग भूल कर भटक गए थे। चारों ओर बीयावान जंगल था। नंगे पाँवों में कांटे चुभ रहे थे, लेकिन मुनिवर समता भाव से चल रहे थे। अचानक ही एक भील सामने आया और हाथ जोड़कर बोला
“मत्थएण वंदामि' महाराज साहब ! आप लोगों को कहाँ जाना है। इस बीहड़ जंगल में कैसे आ फैसे ? मुझे बताएं तो मैं आपको मार्ग पर लगा दूं।"
वनवासी भील को इतनी शिष्ट भाषा बोलते देख श्रद्धेय मुनिजी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपना गंतव्य स्थान 'कुंथुवास' बताया। भील बोला
"बापजी साहब | वह रास्ता तो आप काफी दूर छोड़ आये हैं। चलिए, मैं बताता हूँ।" भील आगे-आगे चल रहा था। श्रद्धेय श्री प्रेमचन्दजी महाराज ने पूछा
"भील तू तो निर्जन वन में रहता है। लेकिन तेरे दिल में हम लोगों के प्रति इतनी सहानुभूति कैसे है ? क्योंकि तुम लोग तो मांस-मदिरा आदि के सेवन करने वाले हो।"
"राम-राम केहिए बापजी ! मांस-मदिरा का नाम भी मत लीजिए।"
मुनिगण और भी चकित रह गए । भील ने ही आगे कहा__ "बापजी ! चौथमलजी महाराज ने मेरा जीवन ही बदल दिया। वे ही मेरे गुरुदेव थे। आप लोगों ने उनका नाम तो सुना ही होगा। उन्हीं की प्रेरणा से मैंने शिकार, मांस-मदिरा का त्याग कर दिया है । अब खेती करके सुख-संतोषपूर्वक जीवन बिताता है।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org