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|| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
स्मृतियों के स्वर : १२४ :
पहा गया।
इस प्रकार माताजी ने दिवाकरजी महाराज से अनेक प्रश्न पूछे और योग्य समाधान पाकर वे बहुत ही प्रमुदित हुई । इन प्रश्नों के उत्तरों में दिवाकरजी महाराज का गम्भीर आगमज्ञान स्पष्ट रूप से झलक रहा है। संक्षेप में और सारगर्भित जो उन्होंने उत्तर दिये, वे उनकी विद्वत्ता के परिचायक हैं। मैं भी उनके उत्तर देने की शैली पर मुग्ध हो गया।
वि० सं० १९३६ में उदयपुर वर्षावास में माताजी सद्गुरुणी जी विदुषी महासती श्री सोहन कुंवरजी के साथ कभी-कभी मध्याह्न में दिवाकरजी महाराज जहाँ विराजे हुए थे, वहां जाती थीं और ज्ञान-चर्चा कर बहुत ही आह्लादित होती थीं।
उदयपुर में दिवाकरजी महाराज के प्रवचनों में सहस्राधिक व्यक्ति उपस्थित होते थे। जैनियों की अपेक्षा भी अजनों की संख्या अधिक होती थी। हिन्दू, मुसलमान सभी लोग उनके प्रवचनों में उपस्थित होते और उनके प्रवचनों को सुनकर वे दुर्व्यसनों का परित्याग कर अपने जीवन को धन्य अनुभव करने लगते । वे वाणी के देवता थे। कब, कितना और कैसा बोलना चाहिए यह भी वे खूब अच्छी तरह से जानते थे। उनके प्रवचनों की यह विशेषता थी कि वे चाहे जैसा भी विषय लेते, उसे उतना सरल और सरस बनाकर प्रस्तुत करते कि श्रोता ऊबता नहीं. थकता नहीं। प्रवचनों के बीच में इस प्रकार सूक्तियाँ, उक्तियाँ और दृष्टान्त देते थे कि श्रोता आनन्द से नाचने लगता । और चुम्बक की तरह श्रोता को इस तरह से खींचते थे कि वह सदा के लिए उनके प्रवचनों को सुनने के लिए लालायित रहता । वे जिधर से विहार करके भी निकलते चाहे छोटे से छोटा भी ग्राम क्यों न हो, वहाँ लोगों की अपार भीड़ उनके प्रवचन सुनने के लिए एकत्र हो जाती । चाहे साक्षर हो चाहे निरक्षर, सभी उनके प्रवचनों को सुनकर अपूर्व तृप्ति का अनुभव करते । वे अपने प्रवचनों में सामाजिक-धार्मिक और जीवन-सम्बन्धी गढ़ पहेलियों को इस प्रकार सुलझाते थे कि जन-जीवन ही बदल जाता । वे कभी-कभी कु-रूढ़ियों के परित्याग हेतु तीव्र व्यंग्य भी करते थे। राजस्थान में होली पर्व के अवसर पर कुछ अंध-श्रद्धालु लोग नग्न देव की उपासना करते हैं उनकी बड़ी-बड़ी मूर्तियां बनाकर उन्हें सजाते हैं। वे “ईलाजी" के नाम से विश्र त हैं । दिवाकरजी महाराज का एक ग्राम में प्रवचन था। होली का समय होने से बाजार में ईलाजी को सजाकर रखे थे। इस अभद्र और अश्लील मूर्ति की उपासना करते हुए मूढ लोगों को देखकर उनका दिल द्रवित हो गया। उन्होंने प्रवचन में ही उपदेश देने के पश्चात् श्रोताओं से पूछाकि ईलाजी आपकी किस पीढ़ी में लगते है ? इस प्रकार कामोत्तेजक व्यक्ति की उपासना करना भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल है। विकारवर्द्धक कोई भी देव के रूप में उपास्य नहीं हो सकते । आप सभी नियम ग्रहण करें कि हम इस प्रकार उपासना आदि न करेंगे। जो नियम ग्रहण नहीं करेगा वह उनका पुत्र कहलाएगा।
यह सुनते ही सभी श्रोताओं ने खड़े होकर नियम ग्रहण कर लिया। सदा सर्वदा के लिए उस ग्राम से ईलाजी को निष्कासित कर दिया। इस तरह प्रत्येक कुरीतियों पर वे सटीक आलोचना करते । अपने श्रोताओं को उन कुरीतियों के दुगूण समझाकर उनसे मुक्त करवाते। उनके निकट सम्पर्क में आने वाले अनेक क्षत्रियों ने तथा शूद्रों ने मांसाहार, मत्स्त्याहार और मदिरापान का त्याग किया। और हजारों ने शिकार जैसे दुर्व्यसन से मुक्ति पायी। अनेक महिलाएँ दुराचार के आधार पर अपना जीवन-यापन करती थीं, उन्होंने दिवाकरजी महाराज के प्रवचनों को सुनकर सदा के लिए अपना जीवन ही परिवर्तित कर दिया। वासना को छोड़कर वे उपासना करने लगीं।
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