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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
जीवदया और सदाचार के अमर साक्ष्य ऐतिहासिक दस्तावेज
जैनधर्म 'अहिंसाधर्म' के रूप में विश्व विश्रुत है । यद्यपि भारत के समस्त धर्म- प्रसारकों ने अहिंसा, दया, करुणा आदि पर बल दिया है, दया का प्रचार किया है, तथापि जितनी सूक्ष्मता, तन्मयता और निष्ठा के साथ जैनाचार्यों ने अहिंसा - करुणा का प्रचार किया है, वह तो अद्भुत है, अनिर्वचनीय है । जीवदया के लिए यहाँ तक कह दिया गया है
जीववहो अप्पवहो,
जीवदया अप्पदया ।
— जीव-वध आत्मवध है, जीवदया आत्म-दया है। किसी भी जीव को मारना अपने आपको मारना है, किसी जीव की रक्षा करना, अपनी आत्म-रक्षा है । इससे बढ़कर जीवदया की प्रेरणा और क्या होगी कि साधक अन्य जीवों की रक्षा व दया के लिए अपने प्राणों को बलिदान भी कर देता है, धर्मरुचि अणगार, मेघरथ राजा तीर्थंकर अरिष्टनेमि, तीर्थंकर पार्श्वनाथ और तीर्थंकर महावीर के अमर उदाहरण इतिहास के अमर साक्ष्य हैं ।
भगवान महावीर से जब पूछा गया कि "आप ( तीर्थंकर) उपदेश किसलिए देते हैं ?" तो उन्होंने उत्तर दिया- "सव्वजग-जीव- रक्खण दयटठ्याए"- -जगत् के समस्त जीवों की रक्षा और दया के लिए ही मेरा ( तीर्थंकरों का ) प्रवचन होता है ।"
भगवान् महावीर का पहला प्रवचन अहिंसा की महान् प्रतिष्ठा का प्रमाण है । मध्यम पावा में जहाँ हजारों पण्डित और हजारों-हजार यज्ञप्रेमी जन विशाल यज्ञ मण्डप की रचना कर Mafia पशुओं का बलिदान करने की तैयारी कर रहे थे, वहीं पर भगवान् महावीर ने अपना पहला प्रवचन दिया, जीव-हिंसा, प्राणिवध के कटु परिणामों की हृदयद्रावक चर्चा करके उन यज्ञ समर्थक पण्डितों के हृदयों को झकझोरा, जीवदया के सुप्त संस्कारों को जगाया और जीवहिंसा से विरत कर अहिंसा की दीक्षा दी। लाखों प्राणियों को जीवनदान मिला। हजारों पशुओं की रक्षा हुई । करुणा की शीतल-धारा प्रवाहित हुई ।
भवगान महावीर को आज भी संसार में सबसे बड़े हिंसा - विरोधी और जीवदया के प्रबल प्रचारक के रूप में याद किया जाता है ।
भगवान् महावीर के पूर्व भी अनेक प्रभावशाली श्रमणों ने जीवहिंसा के निषेध और जीवदया के प्रचार में महान् योगदान दिया ।
अहिंसक व दयालु मगधपति श्रेणिक को उपासक बनाया था ।
श्रमण केशीकुमार ने प्रदेशी जैसे नास्तिक व हिंसक राजा को परम बनाकर जीवदया का महान् कार्य किया था। महामुनि अनाथी श्रमण ने शिकार व जीवहिंसा के दुष्परिणामों का बोध कराकर अहिंसा का परम तपोधन ऋषि गर्दभिल्ल ने संयति राजा को आखेट से त्रस्त मूक-जीवों की करुण दशा का वर्णन कर उसका हृदय बदल दिया और जीवदया की भावना से ओतप्रोत कर उसे 'अभयदाया भवाहि - 'समस्त संसार को अभयदान दो' का मंत्र दिया था
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