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जीवदया और सदाचार के अमर साक्ष्य १३४ :
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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
भगवान् महावीर के बाद जब याज्ञिक हिंसा ने राज्याश्रय ग्रहण किया तो आचार्यों ने भी राजाओं को हिंसा से विरत कर अहिंसा की घोषणाएं, अमारिपटह आदि के द्वारा जीवदया की भावना को सदा जीवित रखा।
कलिकाल सवंश आचार्य हेमचन्द्र ने सम्राट् कुमारपाल को प्रबोध देकर देवी-देवताओं के समक्ष होने वाली नृशंस पशुहिंसा तथा मनोरंजन के लिए किया जाने वाला शिकार आदि हिंसक प्रवृत्तियों को उपदेश के द्वारा प्रतिबन्धित करवाया और आचार्यश्री की प्रेरणा से सम्राट् ने अमारि घोषणाएँ की, राजाज्ञा से हिंसा को प्रतिबन्धित किया।
अन्य अनेक आचायों ने अपने-अपने क्षेत्रों में राजाज्ञाओं द्वारा इस प्रकार की सामूहिक हिंसाओं को रोकने के महान् प्रयत्न किये हैं।
सम्राट् अकबर के समय में आचार्य श्री हीरविजय सूरि ने अहिंसा और करुणा की शुष्कधारा को पुनः जलप्लावित कर दिया था। स्थान-स्थान पर, पर्वतिथियों आदि पर पशुवध के निषेध की घोषणाएँ की गई । जीवहिंसा पर सरकारी प्रतिबन्ध लगाये गये और अहिंसा की भावना जनव्यापी बनी ।
यद्यपि भगवान् महावीर के पश्चात् भी प्रभावक आचायों ने जीवदया प्रचार में कोई कमी नहीं आने दी, पर जिस तीव्रता व व्यापकता के साथ शिकार, पशुबलि, प्राणिवध आदि प्रवृत्तियाँ बढ़ीं, उतनी व्यापकता के साथ उसका प्रतिबन्ध करने के प्रयत्न नहीं हुए । हिंसा, मद्यपान, मांस भक्षण आदि बुराइयाँ जनव्यापी बनती गई और इनके प्रतिकार के प्रयत्न अपेक्षाकृत कमजोर रहे।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जैन-जगत् में एक महाप्राण व्यक्तित्व का उदय हुआ जिसकी चारित्रिक प्रभा से भारत का पश्चिमांचल आलोकित हो उठा। वह महाप्राण व्यक्तित्व जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज थे। उनके अलौकिक प्रभाव, व्यापक प्रचार क्षेत्र व सर्वजनप्रियता का वर्णन पाठक पिछले पृष्ठों पर पढ़ ही चुके हैं अहिंसा व दया के प्रचारहेतु उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया था।
उन्होंने देखा कि जीवहिंसा, शिकार, पशुवध, बलि, मद्य-मांस सेवन आदि दुर्व्यसनों से यद्यपि अमीर-गरीब, राजा प्रजा सभी ग्रस्त हैं, पर इन बुराइयों को प्रोत्साहन उच्च वर्ग से ही मिलता है । निम्न वर्ग तो विवशता की स्थिति में बुराई का आश्रय लेता है, पर उच्च वर्ग सिर्फ मनोरंजन, शान-शौक या परम्परा के नाम पर इन बुराइयों का पोषण करता है। फिर जनता का मनोविज्ञान तो 'यथा राजा तथा प्रजा' रहा है । योगेश्वर श्री कृष्ण ने भी जनमानस की इसी मूलवृत्ति को व्यक्त किया था
यद्यदाचरति श्रेष्ठः लोकस्तदनुवर्तते ।
बड़े आदमी जो आचरण करते हैं सामान्य लोग उसी का अनुसरण करते हैं। समाज के बड़े लोग, शासक या अधिकारी सुधर जायें तो छोटे या प्रजा-जन का सुधरना सहज है । इस नीति के अनुसार जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज ने समाज सुधार या मानस परिवर्तन का एक व्यापक तथा सामूहिक प्रयत्न प्रारम्भ किया था। वे जहाँ भी पधारते, वहाँ के उच्चवर्ग- शासक या श्रीमंत वर्ग को जीवदया, अहिंसा, सामाजिक वात्सल्य तथा शिकार-मद-मांस त्याग की व्यापक
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