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श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : १७४ :
हमारी सच्ची श्रद्धांजलि
* महामहिम उपराष्ट्रपति श्री ब० दा० जत्ती ___ मुनि श्री चौथमलजी महाराज के जन्म शताब्दी समारोह में उपस्थित होने का जो अवसर आपने मुझे दिया, उसके लिए मैं महोत्सव समिति को धन्यवाद देता हूँ। ऐसे अवसरों पर जब भी मैं हाजिर हुआ, सन्त-महात्माओं के सम्बन्ध में कुछ अधिक सुनने और जानने का मैंने लाभ पाया है।
आज से एक सौ वर्ष पहले मनि श्री चौथमलजी का जन्म मध्यप्रदेश में नीमच नामक स्थान पर हुआ था। अठारह वर्ष की आयु में उन्होंने दीक्षा ग्रहण की । अपने ५५ वर्ष के दीक्षा जीवन में उन्होंने भगवान महावीर के सत्य, अहिंसा, संयम और अपरिग्रह के असूलों को अपने जीवन में उतार कर, उनका जन-जन तक प्रचार-प्रसार किया। उसके लिए साहित्य लिखा, पदयात्रायें की, शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की । वास्तव में उनका सारा जीवन आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा में ही बीता। वह साधक थे, आध्यात्मिक उन्नति के लिए उन्होंने हमेशा समन्वय का सिद्धान्त अपने सामने रखा और इसके लिए संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी, गुजराती, राजस्थानी, मालवी आदि भाषाओं के ज्ञान से उन्होंने जैनधर्म ग्रन्थों, गीता, रामायण, भागवत, कुरान-शरीफ, बाइबल आदि धर्म-ग्रन्थों के अध्ययन में लाभ उठाया ।
सन्त-महात्मा तो अविराम सदासद्यः उस नदी के समान होते हैं जिनका जल सभी जगह निर्मल रहता है। सभी उसे पी सकते हैं । ऐसे पुरुष प्रत्येक दृष्टिकोण का सम्मान करते हैं और यह स्वीकार करते हैं कि पर्वत की चोटी पर पहुँचने के लिए कई मार्ग हो सकते हैं, कई दिशाओं और मार्गों द्वारा उस चोटी पर पहुंचा जा सकता है।
हमारे देश के ऋषि-मुनियों, सूफी-सन्तों ने अपने चिन्तन, तप और अनुभव से समय-समय पर हमें जो चीजें बतायीं, उनका यही आशय रहा है कि सूख और शान्ति के लिए हमें उस तत्व को, जिससे यह मानव को स्थाई रूप में मिल सकते हैं, अपने भीतर खोजने की कोशिश करनी चाहिए। उसके लिए उन्होंने हमारे सामने महान् आदर्श रखे । अपने जीवन में इन जीवन मूल्यों को अपनाकर यह बताया कि मन, वचन और कर्म की साधना उच्च आदर्श जीवन के लिए कहाँ तक सम्भव है।
आज के युग में विज्ञान ने आश्चर्यजनक प्रगति की है। मनुष्य को सुख-सुविधा के लिए भौतिक साधनों में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। इसके साथ विज्ञान ने मनुष्य के हाथ में विनाश के जो अस्त्र-शस्त्र जटा दिये हैं, यह दोनों चीजें विज्ञान ने मनुष्य को दी। इससे वह ऐहिक सुख भी प्राप्त कर सकता है और आज तक मनुष्य ने जो कुछ हासिल किया है, अपने साथ उन सभी को खत्म भी कर सकता है। इसलिए विचारवान व्यक्ति इस चीज को स्वीकार करते हैं कि मानव मात्र की रक्षा और कल्याण अहिसक संस्कृति के विकास और उन्नयन द्वारा ही सम्भव है तथा जब तक मनुष्य अहिंसा के व्यापक और लोकोपयोगी अर्थ को समझ नहीं लेता, उसे पूरी तरह अपना नहीं लेता, स्थाई शान्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं होता । दुनिया के लोगों में, परस्पर में सद्भावना और मैत्री पर जितना अधिक विश्वास दृढ होगा, अहिंसा का क्षेत्र उतना ही विस्तृत और बड़ा होता
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