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:१२५ : आध्यात्मिक-ज्ञान की जलती हुई मशाल
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
यह था उनकी वाणी का चमत्कारी प्रभाव । मैंने उदयपुर में अनेक बार उनके प्रवचन सुने । उनकी वाणी में ओज था, तेज था। वे शेर की तरह दहाड़ते थे। वे केवल वक्ता ही नहीं चरित्र-सम्पदा के धनी थे। उनका चारित्र तेजोमय था । कथनी के पूर्व वे अपनी करनी का निरीक्षण करते थे। इसलिए उनके उपदेश का असर बहुत ही गहरा होता था, वह सीधा हृदय में पैठ जाता था। जो बात हृदय से निकलती है वही बात दूसरों के हृदय में प्रवेश करती है । दिवाकरजी महाराज के प्रवचनों की यही विशेषता थी।
मैंने परम श्रद्धय महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज और उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के सन्निकट आहती दीक्षा ग्रहण की सन् १९४० में । उस समय दिवाकरजी महाराज अपने अनेक शिष्यों सहित जोधपुर का यशस्वी वर्षावास पूर्णकर मोकलसर पधारे। परमात्मा कहाँ है ? इस विषय पर उनका मार्मिक प्रवचन हुआ। उन्होंने अपने प्रवचन में बताया कि आत्मा जब तक कर्मों से बद्ध है वहाँ तक वह आत्मा है, कर्मों से मुक्त होने पर वही आत्मा परमात्मा बन जाता है।
आत्मा परमात्मा में कर्म ही का भेद है।
काट दे गर कर्म तो फिर भेद है, न खेद है । "अप्पा सो परमप्पा" कर्म के आवरण को नष्ट करने पर आत्मा का सही स्वरूप प्रगट होता है। वही परमात्मा है। आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं। एक-एक आत्म-प्रदेश पर अनन्त कर्मों की वर्गणाएँ लगी हुई हैं जिसके कारण आत्मा अपने सही स्वरूप को पहचान नहीं पाता । जैसे एक स्फटिक मणि के सन्निकट गुलाब का पुष्प रख देने से उसकी प्रतिच्छाया स्फटिक मणि में गिरती है जिससे स्फटिक मणि गुलाबी रंग की प्रतीत होती है, पर वस्तुत: वह गुलाबी नहीं है । वैसे ही कर्मों के गुलाबी फूल के कारण आत्मा रूपी स्फटिक रंगीन प्रतीत हो रहा है। वह अपने आपके असली स्वरूप को भूलकर विभाव दशा में राग-द्वेष में रमण कर रहा है। परमात्मा बनने का अर्थ है, आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति । जब तक पर-भाव रहेगा, वहाँ तक पर-भाव मिट नहीं सकता जब तक स्व-दर्शन नहीं होता वहीं तक प्रदर्शन की इच्छा होती है। जैन धर्म का विश्वास प्रदर्शन में नहीं, स्व-दर्शन में है। उसकी सारी साधना-पद्धति स्वदर्शन की पद्धति है। आत्मा से परमात्मा बनने की पद्धति है।
इस प्रकार उनका मार्मिक प्रवचन सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई। मध्याह्न में पूज्य गुरुदेवश्री के साथ मैं उनकी सेवा में पहुँचा । मैंने देखा वे उस वृद्धावस्था में भी कलम थामे हुए लिख रहे थे। उनकी लेखनी कागज पर सरपट दौड़ रही थी । हमें देखकर उन्होंने कलम नीचे रख दी और मुस्कराते हुए कहा-'आज का दिन बड़ा ही सुहावना दिन है । आज मुनिवरों से मिलकर हार्दिक आह्लाद हुआ है।"
मैंने निवेदन किया--"स्थानकवासी समाज में इतनी सम्प्रदायें पनप रही हैं जिनमें तनिक मात्र मी मौलिक भेद नहीं है । जरा-जरा से मतभेद को लेकर सम्प्रदायवाद के दानव खड़े हो गए हैं और वे एक-दूसरे को नष्ट करने पर तुले हए हैं। ऐसी स्थिति में आप जैसे मूर्धन्य मनीषियों का ध्यान उन दानवों को नष्ट करने के लिए क्यों नहीं केन्द्रित होता ? इन दानवों ने हमारा कितना पतन किया है ? हम एक होकर भी एक-दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं। हमारी इस दयनीय स्थिति को देखकर आज का प्रबुद्ध वर्ग विचार कर रहा है कि ये धर्म-ध्वजी किधर जा रहे हैं ? केशीश्रमण और गौतम के बीच में तो कुछ व्यावहारिक और ऊपरी सैद्धान्तिक मतभेद भी थे, पर स्थानकवासी समाज में तो जो इतनी सम्प्रदाय हैं उनमें किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं है। केशीश्रमण और
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