________________
| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।।
स्मृतियों के स्वर : १०६ :
पर्युषण के दिन निकट आने वाले थे। लोगों ने अजैनों से अगता पलाने की बात छेड़ी, गुरुदेव ने स्पष्ट कहा-"जैनी अपना आरम्भ सम्भारम्भ छोड़े नहीं, अपना व्यापार बन्द करे नहीं, अपना धन्धा चालू रखकर दूसरों का धन्धा बंद कराने की आशा रखे यह कैसे सम्भव है ? दूसरों से त्याग की अपेक्षा रखने वालों को स्वयं भी त्याग करने के लिए तत्पर रहना चाहिए।"
वाणी का वह जादुई प्रभाव पड़ा कि आपकी प्रेरणा से वहाँ सम्पूर्ण जैन समाज ने व्यापार बंद रखा। और आज भी प्रत्येक वर्ष गुरुदेव की वह वाणी अपना रंग दिखाती है अर्थात् अभी भी जोधपुर में पर्युषण में सम्पूर्ण जैन समाज का बाजार बंद रहता है। इसी का ही परिणाम है कि सेठों के साथ मुनीमों को तथा वेतन-भोगियों को भी धर्म-ध्यान करने का सहज अवसर मिलता है। एक प्रसंग मेरा भी है
संवत् १६६७ का गुरुदेव का जोधपुर चातुर्मास था। मेरी जन्मभूमि जोधपुर है और मेरा संसारी परिवार सनातनी है, इसलिए गुरुदेव के सम्पर्क का तो प्रसंग ही नहीं। हाँ, राम मंदिर या कृष्ण मंदिर में जाने के प्रसंग तो आते ही थे। मेरी छोटी उम्र थी और बचपन में स्वभाव चंचल रहता है। एक बार प्रातः मैं पुरानी धानमंडी में घनश्यामजी के मंदिर जा रहा था, मंदिर के पास एक अर्ध-विक्षिप्त व्यक्ति को हमउम्र बच्चे छेड़ रहे थे, मजाक उड़ा रहे थे। वह ज्यों-ज्यों उत्तेजित होता हम खुशियां मनाते । बचपन की उम्र, अज्ञान दशा और सत्संग का अभाव, क्या समझे दूसरों की पीड़ा को। वह वहाँ से हटकर मार्ग की ओर बढ़ता जा रहा था और हम उसे छेड़ते जा रहे थे। वह वहां से चलते-चलते गुरुदेव के व्याख्यान स्थल आहोर की हवेली में चला गया। हम भी उनके पीछे-पीछे हवेली में चले गये, वहाँ हजारों की मानव-मेदिनी गुरुदेव का व्याख्यान श्रवण कर रही थी।
मैंने पहली बार गुरुदेव को सुना, और सुनते ही नयन-श्रवण एवं मन उसमें रम गया। महात्मा तुलसीदास के शब्दों में
धाये धाम काम सब त्यागे
मनहू रंक निधि लूटन लागे। एक वाणी सनी और पागल का पीछा छोड़ उस वाणी का चिन्तन करने लगा। वाणी का चस्का लगा और अब रोज व्याख्यान सुनने को जाने लगा। उस वाणी का ही प्रभाव था कि आज मैं जैनधर्म की पतितपावनी श्रमण दीक्षा प्राप्त कर उत्तम मार्ग को प्राप्त कर सका।
__ यह प्रसंग संवत् २००५ का है । उन दिनों गुरुदेव अपने शिष्य समुदाय के साथ जोधपुर का ऐतिहासिक वर्षावास चांदी हॉल के सामने संचेती बन्धुओं को हवेली में बिता रहे थे । व्याख्यान भी वहीं होते थे, क्योंकि हजारों व्यक्तियों के बैठने की वहाँ जगह थी। गुरुदेव के प्रभावपूर्ण व्याख्यानों की धूम मच गई। बाजारों में, गली, में घरों में एवं जनता में काफी चर्चा थी । उपदेशों को सुनने स्वतः ओसवाल, अग्रवाल, माहेश्वरी, ब्राह्मण, तम्बोली, माली, मोची, मुसलमान आदि अनेक जाति वाले लाभ उठा रहे थे।
जीवनस्पर्शी व्याख्यानों की महक धीरे-धीरे वेश्याओं के मोहल्ले तक पहुंची। उन्हें ज्ञान हुआ कि श्री चौथमलजी महाराज के मर्मस्पर्शी व्याख्यान चाँदी हॉल के सामने होते हैं, हजारों नर-नारी व्याख्यान सुनने को उपस्थित होते हैं, बैठने के लिए जगह भी कठिनता से मिलती है, कोई भी जाति, कुल, परिवार वाला उस ज्ञान गंगा में पावन हो सकता है। वहाँ उपदेश सुनने की किसी को रोक-टोक नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org