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:११५: अन्तिम दर्शन
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
पहुँचेगा-मैंने कहा। कार वापस कोटा लौट गई । मैंने श्री सागर मुनि (पं० चम्पालालजी महाराज के सुशिष्य) से कहा-"गुरुदेव ने संथारा कर लिया है तो अब आज हम लोग भी आहार नहीं करें, और जल्दी से जल्दी कोटा पहुँचने की चेष्टा करें।"
सागर मुनि तयार हो गये, पर इन्द्रमुनिजी से चला नहीं जा रहा था, वे पीछे आ रहे थे, उनको पीछे छोड़ा। कभी-कभी साथी को भी छोड़ देना पड़ता है, विशेष कार्य की सिद्धि के लिए। हम दोनों चलते गये । लगभग १५ मील चलने के बाद कसार गाँव आया। दो दिन से भूखे थे, पेट में आँटें पड़ने लगे, प्यास भी जोर की लग रही थी। सागर मुनि बोले-"अब तो चला नहीं जा रहा है। आहार न मिले तो कोई बात नहीं, पर पानी तो पीना पड़ेगा। प्यास से गला सूख रहा है।" हमने गांव में प्रासुक पानी की गवेषणा की। पता चला श्वेताम्बर आचार्य श्री आनन्दसागरजी महाराज यहाँ ठहरे हुए हैं। इन्होंने भी कोटा में चातुर्मास किया और गुरुदेव के साथ एक मंच पर ही व्याख्यान दिया था । वे गुरुदेव के प्रति बहुत ही आदर व स्नेह भाव रखते थे, हम उधर ही गये । उनके दर्शनार्थ कोटा से रायबहादुर सेठ केशरसिंहजी बुधसिंहजी बाफना के परिवारजन आये हए थे। सागर मूनि को एक स्थान पर बिठाकर मैं पात्र लेकर जल लेने उनके वहाँ गया। आचार्यजी भीतर ठहरे थे और रायबहादुर का परिवार बाहर बरामदे में ठहरा था। मुझे देखकर उन लोगों ने आहार-पानी के लिए विनती की। मैंने कहा-"बाई ! गुरुदेव ने संथारा किया है, अत: हम आहार तो आज नहीं लेंगे, पर प्यास लगी है, और विहार करना है अत: प्रासुक पानी हो तो ले लेगे।" सेठानी ने कहा-"महाराज! गुरुदेव का तो ८ बजे ही स्वर्गवास हो चुका है, हम लोग वहीं से तो आये हैं। पालकी निकलने की तैयारी हो रही है। हम भी वापस जाकर उसमें (शोभा-यात्रा में) सम्मिलित होंगे।"
सुनते ही मेरे हाथों के तोते उड़ गये । सवासौ मील की यह दौड़ आखिर निरर्थक हो गई। जिस कार्य के लिए चले थे, वह न हो सका । गुरुदेव के अन्तिम दर्शनों की अभिलाषा मन की मन में ही रह गई। मेरे सामने पांडव मुनियों का वह दृश्य घूम गया, जब वे भगवान नेमिनाथ के दर्शनों के लिए जा रहे थे और मार्ग में ही भगवान के निर्वाण का सम्वाद सुनकर स्तब्ध रह गये। उन्होंने भी आहार-पानी का त्यागकर संथारा स्वीकार कर लिया। हम लोगों में इतनी शक्ति नहीं थी, पर भक्ति तो थी, गुरुदेव के दर्शनों की तीव्र भावना थी। इसलिए स्वर्गवास का समाचार सुनकर हाथ-पाँव ठण्डे हो गये । मैं बिना पानी लिये ही लौट आया। अब पानी पात्र में नहीं, आँखों में उमड़ आया था। सागर मुनि को बताया तो उनकी भी आँखों में अश्रुधारा बहने लगी। एक महान उपकारी गुरु का वियोग हृदय को टूक-टूक कर रहा था। कुछ क्षण सुस्ताकर अब सोचने लगे-"अब क्या करें ? कोटा पहुंचने पर भी गुरुदेव के दर्शन नहीं होंगे, और यहाँ बैठे-बैठे भी आखिर क्या करेंगे। चलना तो है ही, चलना ही जीवन है, रुककर कहाँ बैठना है।' मन का उत्साह तो ठण्डा पड़ चुका था पर फिर भी दोनों साथी भूखे-प्यासे उठे और सामान कन्धों पर लेकर चल पड़े कोटा की तरफ।
सुबह चले थे, अब दोपहर ढल रही थी, चलते ही रहे, पर चलने का अर्थ व्यर्थ हो गया, जिस लिए चले थे वह लक्ष्य बिन्दु ही सामने न रहा । इसलिए चलने में न उत्साह था, न आनन्द । पर चलना तो पड़ ही रहा था। यात्रा बीच में ही रोक दें तो वह यात्री कैसा ! आखिर कोटा ५ मील रहा । तब कुछ अजैन लोग मिले। कहने लगे-"जल्दी जाओ! एक बहुत बड़े महात्मा की
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