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: १०६ : अनुभूत प्रसंग
|| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ |
अनुभूत-प्रसंग
* नरेन्द्र मुनि विशारद (१) बीमारी मिट गई जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज विक्रम संवत् १९६३ के वर्ष में अपने शिष्य परिवार के साथ विचरते हुए आगरा शहर में पधारे ।
चातुर्मास के दिन थे। लोहामण्डी जैन स्थानक में दर्शनार्थियों का तान्ता लगा हुआ था । विशाल आयोजन के तौर पर 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन सप्ताह' मनाया जा रहा था। उसी अवसर पर मारवाड़ के चोटेलाव (पाली) निवासी श्रीमान् रावतमलजी चौपड़ा अपने कुछ मित्रों के साथ दर्शन के लिए आगरा उपस्थित हुए।
विक्रम संवत् १९७२ के वर्ष में श्रीमान् चौपड़ाजी ने जैन दिवाकरजी महाराज को अपना गुरु बनाया । तभी से आप गुरुदेव के अधिक सम्पर्क में आये और अनन्य भक्त बने । पूर्ण निष्ठावान और श्रद्धावान् रहे । बीच में गुरु-दर्शन का सम्पर्क टूट-सा गया। काफी वर्षों के बाद गुरु-दर्शन कर रावतमलजी फूले नहीं समाये।
वंदना कर चोपड़ाजी बोले-"गुरुदेव ! बुरी तरह मैं बीमारी से पीड़ित हूँ। बड़ी मुश्किल से यहाँ तक आ सका हूँ, मन में एक ही उत्कण्ठा थी कि-मरता-पड़ता गुरुदेव का दर्शन करलूं । उसके बाद मले यह शरीर रहे या जाय । आज मैं धन्य हो गया। बहुत वर्षों की भावना आज सफल हुई।"
गुरुदेवश्री ने पूछा- "कैसी बीमारी है रावतमल जी ?"
"गुरुदेव ! क्या बताऊँ ? पसली में पानी भर जाता है, लगभग १२ वर्षों से । बार-बार पानी निकलवाया गया, फिर भी आराम नहीं हुआ। अब डाक्टरों ने भी हाथ खींच लिया है, इसका मतलब यही है कि अब मेरी जिन्दगी कुछ ही दिनों की है। आपके दर्शन हो गए। अब मुझे कोई चिन्ता नहीं।"
गुरुदेव-रावतमलजी! घबराना नहीं चाहिए। शरीर रोगों का घर है। बीमारी आती और जाती है, लो मांगलिक सुनलो
उद्भूत-भीषण-जलोदर-मार-भुग्नाः, शोच्यांदशामुपगताश्च्यतजीवताशा । त्वत्पाद-पङ्कज-रजोऽमृत-दिग्ध-देहा,
मा भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥ भक्तामर स्तोत्र का ४५वा श्लोक सनाकर मांगलिक पाठ श्रवण कराया। फिर गुरुदेव बोले - "घर जाने के बाद ४५ दिन तक इस श्लोक को १०८ बार सदैव जपना, आनन्द मंगल होगा।"
श्री रावतमलजी को उक्त गुरु-वचन की महान् उपलब्धि पर बेहद खुशी हुई । सानन्द घर आये। धीरे-धीरे बीमारी स्वतः ही अन्दर की अन्दर सूखती गई। फिर कभी भी बीमारी नहीं उमरी।
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