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: ८५: उदय : धर्म-दिवाकर का
| श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ |
दर्शनार्थ आई। उसने समस्त घटना लोगों को सुनाई। गद्गद कंठ से लोगों ने कहा
"यह गुरुदेव की साधना का प्रभाव है।"
चातुर्मास समाप्ति के दिन गुरुदेव के गुणगान भाइयों ने तो किए ही, एक वेश्या ने भी किए । उसने भी विभोर होकर श्रद्धापूर्वक गुरुदेव के गुण गाए ।
आहोर के ठाकुर साहब ने पर्युषण पर्व, महावीर जयन्ती और पार्श्वनाथ जयन्ती पर अगते रखने का निश्चय जाहिर किया। श्री विलमचन्दजी भण्डारी ने अहिंसा प्रचारक सभा की स्थापना को शुभ सन्देश दिया।
चातुर्मास पूर्ण करने के बाद गुरुदेव जोधपुर से समदड़ी होते हुए गढ़ सिवाना पधारे । उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अनेक लोगों ने हाथ के कते-बुने कपड़े के प्रयोग करने का नियम लिया और कुछ ने विदेशी वस्त्र का त्याग कर दिया। होली पर धूल उड़ाने और गन्दे गीत नहीं गाने के नियम लिए। वहां गुड़-शक्कर और एक चबूतरे के झगड़े थे वे भी जैन दिवाकरजी के उपदेशों से समाप्त हो गए।
मोकलसर, जालौरगढ़ आदि गांवों में भी अच्छे उपकार हुए। हाथी-दाँत के चूड़े और रेशम पहनने का कई बहनों ने त्याग किया।
छयालीसवाँ चातुर्मास (सं० १९६८): ब्यावर सं० १६६८ का चातुर्मास पूज्यश्री खूबचन्दजी महाराज के साथ ब्यावर में हुआ। आपके प्रवचनों से अच्छी धर्म-प्रभावना हुई। निराश्रित भाइयों की सेवा तथा सहायता के निमित्त 'जन सेवा संघ' की स्थापना भी हई। यहाँ शान्तिनाथ भगवान का अखण्ड जाप और 'निर्ग्रन्थ प्रवचन सप्ताह' मनाया गया।
राजा-महाराजाओं को सप्ताह की पूर्ति के दिन हिंसा बन्द रखने का श्रीसंघ ने निवेदनपत्र भेजा । अनेक गांवों में जीव-हिंसा बन्द रही। दि महालक्ष्मी मिल और एडवर्ड मिल बन्द रखे गए । तपस्वी श्री नेमीचन्दजी महाराज ने ४५ दिन की और तपस्वी श्री मयाचन्दजी महाराज ने ३५ दिन की तपस्याएं की। इसमें बहुत धर्मध्यान हुआ। तपस्याएं भी खूब हुईं।
गुरला के महाराज, रायपुर (मारवाड़) तथा सिंगड़ा (जयपुर) के ठाकुर साहब ने व्याख्यान का लाभ लिया। सिंगड़ा (जयपुर) के ठाकुर साहब ने मांस-मदिरा का त्याग पहले ही कर दिया था, अब जैन दिवाकरजी महाराज से रात्रि-भोजन के त्याग का नियम लिया। उसी दिन आप जयपुर लौटने वाले थे। स्टेशन पहुंचे, टिकिट ले लिए। गाड़ी आने में देर थी। साथ के लोग खाने की चीजें लाए। नित्य की आदत के अनुसार ठाकुर साहब ने भी मुंह में खाने की वस्तु डाल लीं, तभी उन्हें याद आया कि 'मैंने तो रात्रि-भोजन का त्याग लिया है।' तुरन्त उन्होंने खाई हुई वस्तु को थूक दिया और गुरुदेव के पास प्रायश्चित्त लेने को जाने लगे । आपके साथ वाले लोगों ने कहा'शहर में जाकर आओगे तो गाड़ी छूट जायेगी।' ठाकुर साहब ने उत्तर दिया-'गुरुदेव से ली हुई प्रतिज्ञा भंग हो गई तो प्रायश्चित्त भी उन्हीं से लूगा। गाड़ी मिले या न मिले । टिकिट के पैसे ही तो जायेंगे। क्षत्रिय के लिए धन से अधिक महत्व प्रतिज्ञा का है।'
यह कहकर ठाकुर साहब तांगे में बैठकर गुरुदेव के पास आए और उनसे प्रायश्चित्त मांगा। गुरुदेव ने कहा-'भूल से हो गया है।' ठाकुर साहब ने कहा-'भूल से ही सही, पर इसके प्रायश्चित्त स्वरूप एक निर्जल उपवास अवश्य करूंगा।' - इसके बाद ताँगे में बैठकर स्टेशन पहुंचे । तब तक गाड़ी आई नहीं थी, लेट थी । ठाकुर साहब के विश्वास से साथी लोग आश्चर्यचकित हो गए।
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