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श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ ।
एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : ६४ :
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श्री गिरधरमाई दामोदर दफ्तरी, श्री धीरजलालभाई तुरखिया, श्री महासुखमाई, सेठ देवराजजी सराना आदि सज्जन इस शिष्टमंडल में सम्मिलित थे। शिष्टमंडल के सभी सज्जन तीन दिन तक रतलाम में रहे । संघ ऐक्य योजना का शेष कार्य पूर्ण करने के उद्देश्य से जैन दिवाकरजी महाराज ने संघ ऐक्य योजना की महत्ता एवं डेपुटेशन की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामना प्रगट की । ऐक्य के सम्बन्ध में चर्चा होने पर उनको सात बातें और उन बातों पर सुझाव बताए । श्री कुन्दनलालजी फिरोदिया ने यह सब जानकर बहुत प्रसन्नता व्यक्त की और कहा कि 'श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने बड़ी उदारता के साथ सात बातें स्वीकार की यह बहुत प्रसन्नता की बात है। आपकी जितनी प्रशंसा की जाय कम है । सातवीं कलम (बात) में दिया हुआ आपका सुझाव वास्तविक है कि इतने दिनों से अलग रहे हैं तो संघ ऐक्य बराबर निभे इसके लिए आचार्यश्री एक मुनिराज की सम्मति से संघ संचालन करें तो श्रेष्ठ है।'
अध्यक्ष श्री फिरोदियाजी ने आपसे आशीर्वाद की याचना करते हए कहा
"आपने पहले पहल पाली (मारवाड़) में हमें शुभाशीष प्रदान की थी। उसी प्रकार अब इस योजना के दूसरे वांचन के समय भी हम आपकी सेवा में उपस्थित हुए हैं।"
जैन दिवाकरजी महाराज ने डेपुटेशन एवं कान्फ्रेंस के सद्कार्यों की प्रशंसा की एवं अपना पूर्ण सहयोग देने का आश्वासन दिया सथा रतलाम संघ को भी प्रेरणा दी कि समय को पहचान कर संगठन करना चाहिए।
कार्तिक शुक्ला १३ को गुरुदेव की ७३वी जयन्ती मनाई गई। अनेक मुनियों एवं श्रावकों के भाषण-भजन आदि हुए। गुरुदेव के गुणगान किये, चरणों में श्रद्धा-भक्ति के पुष्प चढ़ाए, दीर्घायु के लिए कामना की। अनेक तरह के त्याग-प्रत्याख्यान, तपस्याएँ भी हुई।
जैन दिवाकरजी महाराज ने फरमाया कि 'गुणगान तो भगवान महावीर एवं जैनधर्म के होने चाहिए। मैं तो चतुर्विध संघ का सेवक हूँ और यथा
रहूँगा।"
रात्रि को सेठ कन्हैयालालजी मंडारी इन्दौर की अध्यक्षता में सभा हुई जिसमें विद्वान वक्ताओं और कवियों ने गुरुदेव के गुणगान किये।
कई संस्थाओं की मीटिंगें भी हुईं।
इस चातुर्मास में श्री कन्हैयालालजी फिरोदिया आपश्री के सम्पर्क में आए | फिरोदियाजी ने साम्प्रदायिक कारणों से किसी संत के प्रवचन सुनने की तो बात ही क्या, ३५ वर्ष की आयु तक किसी संत के दर्शन भी नहीं किये थे । ऐक्य का वातावरण बना, चातुर्मास में आना-जाना प्रारम्भ हुआ। प्रथम दर्शन और प्रवचन श्रवण करते ही उनकी कवि-वाणी फुट पड़ी
मेरा प्रणाम लेना
(तर्ज-ओ! दुर जाने वाले ) ओ जैन के दिवाकर ! मेरा प्रणाम लेना। आया हूँ मैं शरण में, मुझको भी तार देना ।।टेक।। करके कृपा पधारे, गुरुवर नगर हमारे । . उपकार ये तुम्हारे, भूलेंगे हम कभी ना ।। १ ।। वाणी अति सुहानी, निशदिन सुनाते ज्ञानी।। समझाते हैं खुलासा, है साफ-साफ कहना ।। २।।
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