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: ८१ : उदय : धर्म-दिवाकर का
|| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-न्य
निश्चित कर दिया । दिगम्बर धर्मशाला में ही आपके प्रवचन हुए। शंका-समाधान के कार्यक्रम से उत्साहित होकर कुछ विशिष्ट विद्वान् एकत्र होकर आए। उन्होंने प्रश्न किया
"आप स्त्री-मुक्ति स्वीकार करते हैं । इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं, किन्तु साथ ही इस बात को भी मानते हैं कि स्त्री १४पूर्वो का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकती। फिर उसे केवलज्ञान, केवलदर्शन कैसे हो सकते हैं ? जब केवलज्ञान ही नहीं होता तो मुक्ति कैसे संभव है ? आपका यह सिद्धान्त कैसे ठहरेगा ?"
महाराजश्री के मुख पर गम्भीरतापूर्ण मुस्कान खेल गई। सहज शांत स्वर में बोले
भद्रजनो! तुम्हारे इस प्रश्न में दो प्रश्न निहित हैं-'एक स्त्री मुक्ति और दूसरा १४पूर्वो के ज्ञान के अभाव में केवलज्ञान न होना । अब प्रथम प्रश्न का उत्तर सुनिये
इतना तो आप भी मानते हैं कि मुक्ति आत्मा की होती है, शरीर की नहीं; और आत्मा न पुरुष है, न स्त्री। पुरुष और स्त्री तो शरीर है और शरीर की रचना नामकर्म के उदय से होती है। नामकर्म अघाती कर्म है, इसलिए केवलज्ञान प्राप्ति में बाधक नहीं है। केवलज्ञान के उपरान्त तो मुक्ति का द्वार खुला हुआ है ही।
अब अपने प्रश्न के दूसरे भाग का उत्तर सनिये
ऐसा कोई नियम नहीं है कि १४पूर्वधर ही मुक्त हो सके । आगम की एक गाथा का ज्ञान रखने वाला भी मुक्त हो सकता है। माष-तुष जैसे अनेक मुनियों के उदाहरण आपके शास्त्रों में भी आते हैं। यद्यपि बात यह बराबर नहीं है, फिर भी यह माने कि १४पूर्वो का ज्ञाता ही मुक्त हो सकता है तो १४पूर्वो का सार नवकार मन्त्र में है, ऐसा आप लोग भी मानते हैं। इस तरह एक नवकार मन्त्र के माध्यम से स्त्री भी उस सार को जान सकती है।
धर्म-साधना, मनोबल और दृढ़ता की दृष्टि से विचार करें तो भी स्त्री हीन नहीं, वरन कुछ अधिक ही प्रमाणित होती है । वह एक बार जो मन में निश्चय कर लेती है, उसे अवश्य पूरा करके ही रहती है । बेले-तेले यहाँ तक कि मास-मास का व्रत-तप वही कर पाती है, जबकि पुरुष हिचकता है। अब आप ही बताइये-बल, वीर्य, उत्थान आदि किसका तेजस्वी है ?
युक्तियुक्त समाधान पाकर विशिष्ट विद्वान् बगलें झांकने लगे। फिर दूसरा प्रश्न किया
"वस्त्र आदि अन्य उपकरण आप लोग रखते हैं । क्या इससे पाँचवाँ महाव्रत अपरिग्रह दूषित नहीं होता ?"
महाराज श्री ने समाधान दिया
"परिग्रह को आप लोगों ने सर्वांग दृष्टि से नहीं समझा । वस्त्र, पात्रों को नहीं, वरन् मूर्छाभाव को परिग्रह कहा गया है। दिगम्बर मुनि भी पीछी, कमण्डल का परिग्रह रखते हैं। पूर्ण अपरिग्रही कोई नहीं होता। अति आवश्यक उपकरणों को रखने की आज्ञा आगम में दी गई है। 'मूर्छा परिग्रहः' सूत्र के आधार पर आप स्वयं ही निर्णय कर लीजिए।"
विद्वान् निरुत्तर हो गये। जिनमें सत्य को समझने की वृत्ति थी, वे संतुष्ट भी हो गये और गुरुदेवश्री की विद्वत्ता की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।
तेतालीसा चातुर्मास (सं० १९६५) : दिल्ली यह चातुर्मास आपका भारत की राजधानी दिल्ली में हुआ। यहाँ आपने एक जर्मन प्रोफेसर को आत्मा के बारे में बड़े ही सरल शब्दों में ज्ञान कराया।
जर्मन प्रोफेसर को आत्मा का ज्ञान दिल्ली चातुर्मास की घटना है। बोर्ड पर सूचना अंकित थी-'अध्यात्म व्याख्याता जैन
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