________________
श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
·
सेंतीसवां चातुर्मास (सं० १६८९ ) : मनमाड
बम्बई चातुर्मास पूर्ण कर आपश्री नासिक की ओर प्रस्थित हुए। नासिक से कुछ ही दूर पहले सड़क पर एक घर के सामने एक भाई खड़ा था । उसको कम दिखाई देता था, सड़क पर चलने वाले लोगों से पूछ रहा था - 'हमारे महाराज आने वाले हैं, तुमने देखे हैं क्या ?' थोड़ी दूर पर ही गुरुदेव अपने शिष्यों के साथ पधार रहे थे। उसने एक साधु जी से पूछा तो उन्होंने बताया'हाँ, गुरुदेव पधार रहे हैं ।' उसने वहीं से अपनी भाभी को आवाज देकर कहा - 'महाराज साहब पधार रहे हैं, दर्शन करलो आवाज सुनकर उसकी भाभी बाहर आई। वह दरिद्रता की साक्षात् मूर्ति थी । बदन के कपड़े कई स्थानों से सिले हुए थे । उसका सारा शरीर कंकाल मात्र था । उसकी ऐसी दीन दशा देख संतों के हृदय में दया उमड़ी। घर के अन्दर जाकर देखा तो भोजन-सामग्री का मी अभाव था। संतों का करुण हृदय द्रवित हो गया। नासिक पहुँचकर अहमदनगर के श्रीमान् ढोढीरामजी को उस भाई की करुण दशा लिखाई और साधर्मी वात्सल्य की प्रेरणा दी। ढोढीरामजी ने अहमदनगर चातुर्मास में ही मृत्यु भोज (मोसर) का त्याग करके ५००० रुपये ओसवाल निराश्रित सहायता के लिए निकाले थे। उन्होंने पत्र मिलते ही अपने मुनीम को भेज कर उस भाई के निर्वाह की समुचित व्यवस्था करवा दी। नासिक श्रीसंघ ने भी साधर्मी माइयों की सहायता करना अपना पहला कर्तव्य माना। नासिक में आपके व्याख्यानों का अधिकारियों पर बहुत प्रभाव पड़ा । आपका व्याख्यान थिएटर हॉल में होता था। जैन पाठशाला भी प्रारम्भ हुई।
भगवान या बिम्ब
दिया।
एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन ७२
युवकों का समाधान हो चुका था। उन्होंने सिर झुका कर कहा
" समझ गए गुरुदेव ! आपका ज्ञान विशाल है और समझाने का तरीका अति उत्तम ।”
नासिक से मनमाड होते हुए बीजापुर पधारे। वहाँ पर स्थानकवासी तथा मन्दिरमार्गी जैन समाज में बहुत मनमुटाव चल रहा था। कुछ मन्दिरमान भाई वितण्डावाद खड़ा करने के लिए आपके पास आए। उन्होंने प्रश्न किया
"महाराज ! आप प्रतिमा को भगवान मानते हैं या ........?"
Jain Education International
-
आप समझ गए कि ये लोग व्यर्थ का वितण्डावाद खड़ा करना चाहते हैं, अतः इन्हीं के मुख से न्याय होना चाहिए । शान्त गम्भीर स्वर में आपने प्रतिप्रश्न किया
"आप लोग क्या मानते हैं ?"
"हम तो भगवान की प्रतिमा को भगवान ही मानते हैं।" उन लोगों ने तपाक से उत्तर
"और मोक्ष स्थित भगवान को ?" महाराज श्री ने दूसरा प्रश्न किया।
" वे भी भगवान हैं ।" उनका उत्तर था ।
अब आपने सूत्र अपने हाथ में लिया
"मोक्ष स्थित भगवान और उनकी प्रतिमा में आपकी दृष्टि से कोई अन्तर ही न रहा क्यों न ? यदि धातु-पत्थर की मूर्ति में अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुखवीर्य आदि आत्मिक गुणों का सद्भाव है तो हम भी उसे भगवान मान लेंगे और यदि ये गुण नहीं हैं तो प्रतिमा बिम्ब मात्र है और पुद्गल में आत्मिक गुणों का होना असम्भव है। आप उसे भगवान मानें हमें कोई आपत्ति नहीं है । लेकिन आप सब लोग विवेक रखते ही हैं, इसलिए स्वयं ही सोच-विचार कर निर्णय कर
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org