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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
सौ बकरों को अभयदान दिया और रावराजा रामसिंहजी ने अपनी ओर से तीस बकरों को अभयदान दिलाया तथा ५० अपाहिजों को भोजन कराया ।
तेवीस वर्षीय सादड़ी (मेवाड़) निवासी ओसवाल भैरवलाल जी ने दीक्षा ग्रहण की। उनका नाम बदल कर वृद्धिचन्दजी रखा गया ।
श्री भैरवलालजी को वैराग्य भावना तो १६ वर्ष के थे तभी आ गयी थी परन्तु उनके काका ने आज्ञा नहीं दी, बल्कि मार-पीट और मित्रों की धुनी तक भी दी कि यह साधु बनने का नाम न ले ।
एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : ४६ :
छब्बीसवां चातुर्मास (सं० १९७८) रतलाम
जोधपुर से विहार करके आप पाली पधारे। वहाँ पहले किसी समय पं० रत्न पूज्य श्री माधव मुनिजी महाराज ने एक पाठशाला प्रारम्भ करने की योजना बनाई थी। वह योजना कार्य रूप में परिणत हो गई । पाठशाला अभी तक चालू है । वहाँ से आप सोजत पधारे । आपके प्रव चन के प्रभाव से कितने ही लोगों ने दुब्यसनों का त्याग कर दिया। वहाँ से आप व्यावर पधारे। अजमेर से पूज्यश्री शोभाचन्द जी महाराज का सन्देश आया कि “यहाँ दो बैरागी तथा दो वंरागिनों की दीक्षा होने वाली है उसमें आप पूज्य मन्नालालजी महाराज सहित पधारें ।” अजमेर श्रीसंघ ने यह सन्देश दिया एवं आग्रह पूर्वक प्रार्थना की। आपने स्वीकृति दे दी तथां पूज्यश्री के साथ अजमेर पधारे ।
अजमेर से बिहार करके आप नसीराबाद पधारे। वहाँ अनेक खटीकों ने जीवहिंसा का त्याग किया। वहाँ से भीलवाड़ा पधारे ।
मार्ग में भी बहुत उपकार हुआ । श्रावकों ने ४० बकरों को अभय दिया । फिर आप चित्तौड़ पधारे। वहाँ ओसवाल और महेश्वरियों ने दहेज न लेने का निश्चय किया और कन्या विक्रय का दण्ड निर्धारित कर दिया। साथ ही असमर्थ और निर्धन भाइयों को कन्या के विवाह के लिए ४०० रुपये बिना ब्याज के देने का निर्णय किया। सोनियों ने प्रत्येक एकादशी और अमावस्या के दिन अग्नि का उपयोग न करने की प्रतिज्ञा की । मोचियों ने प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस्या के दिन मांस मदिरा के सेवन का त्याग किया और इन दो दिनों ईश्वर-भजन का नियम लिया। गाड़ी वालों ने अधिक भार न लादने की प्रतिज्ञा की । इसी प्रकार के अनेक नियम अन्य जाति वालों ने भी लिए । चित्तौड़ से विहार करके आप चित्तौड़ किले पर पधारे। वहाँ चारभुजाजी के मन्दिर में प्रवचन हुए। महन्त लालदासजी तथा उनका शिष्य समुदाय प्रवचन सुनते थे। चितौड़ होकर टेलर साहब बेलगाम (दक्षिण) जाते हुए निकले। उनके हृदय में महाराज साहब के दर्शन वन्दन । की 'बहुत इच्छा थी, लेकिन आवश्यक सरकारी कार्य होने के कारण रुक न सके । उनका भावभरा
पत्र आया ।
जब आपने वहाँ से विहार किया तो महंतजी ने रुकने का बहुत आग्रह किया और उनका शिष्य तो चरणों से लिपट ही गया। बड़ी कठिनाई से उसे समझा-बुझाकर आपने घटियावली के लिए प्रस्थान किया ।
घटियावली में महाजनों और किसानों ने आपभी के उपदेश सुनकर विविध प्रकार के स्वाग लिए। वहाँ के ठाकुर साहब श्री यशवन्तसिंहजी और उनके काका श्री जालिमसिंहजी नित्य प्रवचन सुनते थे । ठाकुर साहब ने पक्षियों को न मारने की तथा जालिमसिंहजी ने शेर, सूअर तथा पक्षियों को न मारने की एवं कालुसिंहजी ने चार प्रकार के प्राणियों के अलावा किसी को न मारने
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