Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
जैन धर्म मे तप
तप के विपय मे, तप की परिभापा, उसका स्वरूप और उसके भेद समझ लें, फिर आप शायद् अपने आप ही कह उठेगे-'ओह । हमने तो कुछ और ही समझ रखा था, जिस तप को 'अलूणी सिला' कह रहे थे, वह तो मिसरी को रोटी है । हा, पहले तप का ज्ञान कीजिये, उसका स्वरूप समझिये ।
तप को विविध व्याख्याएं तप यह दो वर्णों का एक चमत्कारी शब्द है, इसमे अचिंत्य और असीम गक्ति छिपी है । जैसे 'अणु' दो वर्णों का छोटा सा शब्द है, परतु उसकी शक्ति कितनी विराट् है ? कितनी चमत्कारी है ? 'अणु शक्ति' के नाम से आज ससार चोकता है, और उसके अद्भुत कारनामो से, उसकी अद्भुत शक्तियो से वडे-बडे राष्ट्र भी भयभीत है । तो 'अणु' की तरह ही दो वर्ण का शब्द है 'तप' और वह भी अणु से अधिक शक्तिमान है । तप की शक्ति के समक्ष हजारो लाखो अणुवम धूल चाटते हैं। हा, तो उस महान् शक्तिपुत्र तप का अर्थ क्या है ? आवश्यक सूत्र की टीका मे आचार्य मलयगिरि ने बताया है
तापयति अष्ट प्रकार कर्म-इति तप ।' जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता हो, उन्हे भस्मसात् कर डालने मे समर्थ हो, उसे कहते हैं-तप ।
आपने ताप शब्द तो सुना ही है ? ताप का अर्थ है-गर्मी ! उष्णता ! धूप | कर्मों को स्थान-स्थान पर सुखे काठ की उपमा दी गई है, शुष्क घास बताया गया है, और उस घास को जलाने के लिए तप को अग्नि बताई है ।२ धूप जैसे पानी को सुखा देती है, गर्मी जैसे शीत को भगा देती है, वैसे ही तप कर्मरूप जल को सुखा देता है, भव रूप शीत को भगा देता है, इसलिए तप को ताप या आतप-धूप के रूप में समझना चाहिए ।
जैन आगमो के प्रसिद्ध चूर्णिकार जिनदासगणी महत्तर (समय वि० स०
१ आवश्यक मलयगिरि, खण्ड २ अध्ययन १ २ तापयति कर्म, दहतीति तप -पचाराक विवरण १६