Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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... जैन धर्म में तप जो मनुष्य हिताहारी (शरीर को हितकारी) मिताहारी (नियमित आहारो) और अल्पाहारी (नित्यप्रति के आहार से कम भोजन करने बाते) है, उन्हें किसी वैद्य ते चिकित्सा करवाने की आवश्यकता नही, वे स्वयं ही अपने वैद्य हैं, चिकित्सक हैं। . ऊणोरिया सुहमाणइ।
-मरणसमाधि १३६ नोदरी जप करने वाले सुर पाते हैं । ये कभी अस्वस्थ नहीं होते। अतिरेगं अहिगरणं।
-ओघनिमुक्ति ७४१ आयरपरता से अधिक एवं अनुपयोगी उपकरण आदि रमना वास्तव में
अधिारण (दोगमा एवं क्लेशद) है। रस-परित्याग :
रसापगामा न निसेवियब्बा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं। .. दित न कामा समभिवंति, दुर्ग जहा साउफलं व पक्खी ।।।
- उत्तराध्ययन मुब ३२।१० मनुष्य को भी दूर आदि रनों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए, नयोति र प्रापित होने हैं। उसका पुरुष के निकट काम भागनरेननी माती से सादिष्ट न पाले के पास पी
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गरगट्टाप जिन्ना, जवटाए महामुणी।
___ उसमन मुत्र ३५१
भनिन पिसता उति ।