Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप
तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व। . .....
-तैत्तिरीय आरण्यक६२ तपके द्वारा ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप को जानिए ।
तपो ब्रह्मति ।
---तैत्तिरीय आरण्यक- २
तप ही ब्रह्म है। ६ ऋतंतपः, सत्यंतपः, धुं तंतपः, शान्तं तपो, दानंतपः ।
--तैत्तिरीयआरण्यक नारायणोपनिषद् १०१८ ऋत (मन का सत्य संकल्प) तप है । सत्य (वाणी से सत्य भाषण) तप है । श्रुत (शास्त्र श्रवण) तप है । शान्ति (ऐन्द्रियिक विपयों से विरक्ति) तप है । दान तप है।
तपो नानशनात् परम् । यद्वि परं तपस्तद् दुर्धर्षम् तद् दुराधर्षम् ।
-तैत्तिरीय आरण्यक १०१६२ अनशन से बढ़कर कोई तप नहीं है । साधारण साधक के लिए यह परम
तप दुर्धर्ष है, दुराधर्ष है, अर्थात् सहन करना बड़ा ही कठिन है । ११ नाऽतपस्कस्याऽत्मज्ञानेऽधिगमः कर्मशुद्धिर्वा ।
-मैत्रायणी आरण्यक ४।३ जो तपस्वी नहीं है, उसका ध्यान आत्मा में नहीं जमता और इसलिए
उसकी कर्म शुद्धि भी नहीं होती। १२ तपसा प्राप्यते सत्त्वं सत्त्वात् संप्राप्यते मनः । . मनसा प्राप्यते त्वात्मा ह्यात्मापत्त्या निवर्तते ।।
-यजुर्वेदीय मैत्रायणी आरण्यक ४१३ तप द्वारा सत्त्व (ज्ञान) प्राप्त होता है, सत्त्व से मन वश में आता है, मन वश में आने से आत्मा की प्राप्ति होती है,और आत्मा की प्राप्ति हो जाने पर संसार से छुटकारा मिल जाता है।