Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 639
________________ परिशिष्ट ४ મૂળ (ख) यहां किए हुए दुष्कर्मों का फल नरकादि दुर्गति में तथा सत्कर्मों का फल स्वर्गादि सद्गति में मिलने का वर्णन करना द्वितीय निर्वेदनी कथा है । (ग) पूर्व भव में किये हुये पापों के उदय से यहाँ दुःख, दौर्भाग्य, रोग और . शोक मिलते हैं तथा पुण्यों के उदय से सुख-सौभाग्य - आरोग्य और आनन्दादि मिलते हैं । इस प्रकार का वर्णन करना तृतीय निर्वेदनीकथा है । (घ) पूर्व भव में किये हुये शुभ-अशुभ कर्मों का आगामीभव में फल मिलने रूप वर्णन सुनाना । जैसे— पूर्व भव में किसी जीव ने नरक योग्य कुछ कर्म करके बीच में काक - गीध एवं तन्दुलमच्छ आदि का जन्म ले लिया एवं बँधे हुए अधूरे नरक योग्य कर्मों को पूर्ण करके नरक में उत्पन्न हो गया एवं पिछले तीसरे भव में बांधे हुये अधूरे अशुभ कर्मों को भोगने लगा । इसी प्रकार तीर्थंकरनाम कर्म वांधने के बाद भी जीव तीसरे भव में तीर्थंकर होकर भोगता है । जिस कथा में इस प्रकार का वर्णन हो, वह चतुर्थनिर्वेदनीकथा है । १४. पृष्ठ ४७० पर ध्यान का स्वरूप बताया गया है । उसी संदर्भ में ध्यान के आठ अंगों का स्वरूप भी समझने जैसा है। वहां विस्तारभय से नहीं दिया गया है जो यहाँ पर दिया जा रहा है '' ध्यान के आठ अंग ---- ( १ ) ध्याता, (२) ध्यान, (३) फल, (४) ध्येय, (५) ध्यान का स्वामी, (६) ध्यान के योग्य क्षेत्र, (७) ध्यान के योग्य समय, (८) ध्यान के योग्य अवस्था | (१) ध्याता - वह व्यक्ति ध्यान के योग्य माना गया है, जो जितेन्द्रिय है, धीर है, जिसके क्रोधादि कपाय शान्त हैं, जिसकी आत्मा स्थिर है, जो सुखासन में स्थित है एवं नाशा के अग्र भाग पर नेत्र टिकाने वाला है ।

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