Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 638
________________ ५७४ जैन धर्म में तप (२) ध्यान-अपने इष्ट विषय (ध्येय में लीन हो जाना अर्थात आज्ञाविच. यादि रूप से स्वयं परिणित हो जाना-- रम जाना ध्यान है। . आसक्ति का त्याग, कपायों का निग्रह, व्रत धारण तथा मन एवं इन्द्रियों । को जीतना- ये सब कार्य ध्यान की सामग्री है। (३) फल-ध्यान का फल संवर-निर्जरा है । अर्थात् आते हुये नये कर्मों को रोकना एवं पुराने कर्मों को तोड़ना है। भौतिक सुख सुविधाओं को प्राप्ति के लिये ध्यान करना निषिद्ध है। (४) ध्येय-जिस इष्ट का अवलम्बन लेकर ध्यान-चिन्तन किया जाता है, उसे ध्येय कहते हैं । ध्येय के चार प्रकार है-(१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ, (४) रूपातीत। " (५) ध्यान का स्वामी-(१) वैराग्य, (२) तत्त्व ज्ञान, (३) निर्ग्रन्थता, (४). समचित्तता, (५) परिग्रह जय-ये पाँच ध्यान के हेतु हैं । इनसे सम्पन्न व्यक्ति ध्यान का स्वामी (अधिकारी) कहलाता है। (६) ध्यान का क्षेत्र -जहां ध्यान में विघ्न करने वाले उपद्रवों एवं विकारों की सम्भावना न हो - ऐसा क्षेत्र ध्यान के योग्य माना जाता है। (७) ध्यान के योग्य काल-यद्यपि जव भी मन स्थिर हो उसी समय ध्यान किया जा सकता है, फिर भी अनुभवियों ने प्रातः काल को सर्वोत्तम माना है। . (a) ध्यान के योग्य अवस्या-शरीर को स्वस्थता एवं मन की शान्त अवस्था ध्यान के लिये उपयुक्त कहलाती है। तभी तक ध्यान स्थिर रहता है, जब तक शरीर या मन में खिन्नता न हो---इसलिये कहा है कि जाप से धान्त होने पर ध्यान एवं ध्यान से प्रान्त होने पर जाप में लग जाना चाहिये तथा दोनों में मन न लगे तो स्तोत्र पढ़ना शुरु कर देना चाहिये।

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