Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 631
________________ परिशिष्ट ४ . ५६७ १ भक्ति- हाथ जोड़ना, सिर झुकाना आदि वाह्य व्यवहार में नम्रता प्रदर्शित करना। '. २ बहुमान - गुरुजनों के प्रति हृदय में श्रद्धा एवं प्रीति रखना। तथा उनका आदर करना। ३ वर्णवाद-गुणों की प्रशंसा करना. उन्हें ग्रहण करने का प्रयत्न करना। ये तीनों शब्द विनय के अर्थ में प्रचलित है । ६. अप्रशस्त मन विनय के अन्तर्गत पृष्ठ ४३५ पर सात भेद बताये गए हैं। इन्हीं भेदों में परिवर्धन कर औपपातिक सूत्र में बारह भेद कर दिये गए हैं, जो इस प्रकार हैं अप्रशस्तमनोविनय-अप्रशस्तमन अर्थात् खराव मन । यह बारह प्रकार का होता है(१) सावद्य-गहित (निन्दित) कार्य से युक्त, अथवा हिंसादि कार्य से युक्त मन की प्रवृत्ति । (२) सक्रिय-कायिकी आदि क्रियाओं से युक्त मन की प्रवृत्ति। (३) सकर्कश-कर्कश (कठोर) भावों से युक्त मन की प्रवृत्ति । (४) फटुक - अपनी आत्मा के लिये और दूसरे प्राणियों के लिए अनिष्ट- - कारी मन की प्रवृत्ति। (५) निष्ठुर- मृदुता (कोमलता)-रहित मन की प्रवृत्ति। (६) परुष-कठोर अर्थात् स्नेहरहित मन की प्रवृत्ति। (७) आलवकारी-जिससे अशुभ कमों का आगमन हो, ऐसी मन की प्रवृत्ति । () छेदकारी-अमुक पुरुष के हाथ-पैर आदि अवयवः काट दिये जाएं . इत्यादि मन की प्रवृत्ति । (६) भेदकारी-अमुक पुरुष के नाक-कान आदि का भेदन कर दिया जाए, ऐसी मन की प्रवृत्ति ।

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