Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
जैन धर्म में सार
वैयावृत्य : ५७ वैयागुत्यम्-भक्कादिभिधोपग्रहकारि वस्तुभिरूपग्रह करणे ।
-स्थानांग टीका ५१ धर्म में सहारा देने वाली आहार आदि वस्तुओं द्वारा उपग्रह-सहायता करना "यावृत्त्य' कहलाता है। यावृत्त्य शब्द सेवा के अर्थ का
१८ दसविहे वेयावच्चे पण्णत्त तं जहा-आयरियवेयावले, उवाय वेगावच्चे, थेर वेवावच्चे, तवस्ति वेयावच्चे, गिलाण
यावच्चे, सेह वेयावच्चे, कुल वेयावच्चे, गण वेयावच्चे, संघ धेयावच्ने, साहम्मिय वेयावच्चे। -स्थानांगनुम १०१४४६ ___आचार्य को वैवावृत्त्य (सेवा) उपाध्याय की गावृत्य, स्थविर की मावृत्य, तपस्यों की वैयावृत्य, ग्लान की वैयावृत्य, नवदीक्षित की वैमावृत्य काकी बंगावृत्य, संघ की यावृत्य, सहधर्मी की वैयावृत्य । इन दलों .
सो गवायोग्य सेवा भक्ति करना यात्म तप कहा जाता है । ५६ यावच्चणं तित्थयरनाम गोयं कम्म निबंधे।
-उत्तराध्ययन २६॥३ आया मादि की बगावत्रा (मेवा) करने से जीव तीर्थकर नाम गोत्र का सामान करता है। आहार, पानी, शैया, आसन आदि लेकर औरभि शादि समयोचित सेवा संरक्षण आदि सत् क्रियाएं बगावतार
मैं भाती है। ६२ मंगिहीय परिनगम संगिम्हणवाए अन्मुठेपन्वं भव--
___
ARTHER
को मायय एवं सहयोग देने
का
६२ पिलाना मनावावयारागार मुदगल भवद ।
imater 'रना चा!ि . .