Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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. .. जैन धर्म में तप ... चाहिए । इसी ध्यान का आलम्बन सरल बनाने के लिए आगे चलकर प्रतिमामूर्ति का आधार लिया गया है। किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए-मूर्ति सिर्फ प्रेरक हो सकती है, किन्तु मूर्ति को ही भगवान मानकर उसकी पूजा करना, उसके समक्ष फल-फूल चढ़ाना, दीपक जलाना और यह मानना कि मैं तो भगवान की ही साक्षात् अर्चना कर रहा हूँ--यह एक प्रकार की अघंश्रद्धा व अज्ञान की श्रेणी में चला जाता है !
रूपातीत ध्यान . .. धर्म ध्यान का यह चौथा प्रकार है- इस में रूप से अतीत निराकार- . . ... निरंजन सिद्ध भगवान परमात्मा का चिंतन करते हुए आत्मा उसी में तन्मय . हो जाता है । आचार्यों ने बताया है
... निरंजनस्य सिद्धस्य ध्यानं स्याद् रूप वजितम् । निरंजन सिद्ध स्वरूप का ध्यान करते हुए आत्मा स्वयं को कम मल मुक्त सिद्ध स्वरूप में ही अनुभव करता है। इस ध्यान में पूर्व वर्णित ध्यानों को तरह कोई साकार कल्पना नहीं होती, न कोई मंत्र व पद होता है, न दृश्य आदि की कल्पना । किन्तु मन इतना सध जाता है कि बिना दृश्य के ही वह एक विचार में स्थिर हो जाता है। रूपातीत शब्द से यहां दो अर्थ लिये जा . समाते हैं-एक-किसी आलम्बन के विना अरूप कल्पना में ही मन स्थिर .. हो जाना । दूसरा - रूप रहित आत्म तत्त्व या सिद्ध स्वरूप की कल्पना करते हुए आत्म चिंतन करना कि-मैं अरूपी हूं, अभौतिक हूं। मेरा आत्मा अन्य . . है, इन्द्रियां अन्य है । जो दीखता है वह मैं नहीं, इस प्रकार स्वयं को अका . मानकर चिंतन करना और अल्गी-सिद्ध भगवान के गुणों आदि का चिंतन कारना-ये दोनों ही अर्थ मातीत ध्यान के साथ जुड़े हुए हैं। .
भाजाल जिस भावातीत, विचारशून्य ध्यान कहते हैं यह मातीत . ध्यान की ही एक परिकलाना है। किन्तु कोई साधक सीधा ही इस धान की बेनी में पहुंचना चाहे तो यह प्राय: असंभव है । स्थल से शुभम की ओर धीरे और बड़ा आता है। मो . अन्ना की और बढ़ने में काफी अभ्यास और १ योग शान ११