Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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ध्यान तप .
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साधना चाहिए । पूर्व के भेदों में याता, ध्यान और ध्येय का भेद रहता है, किन्तु रूपातीत ध्यान सिद्ध होने पर यह भेद रेखा समाप्त हो जाती है, ध्याता ध्येय और ध्यान तीनों एकाकार हो जाते हैं जैसे समुद्र में समस्त नदियां अपना-अपना स्वल्प विलीन कर समुद्राकार हो जाती है, उसी प्रकार इस ध्यान में ध्याता-ध्येय रूप में एकाकार हो जाता है। ............
श्वेताम्बर मान्यतानुसार छठे गुणस्थान में धर्मध्यान होता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा सातवें गुणस्थान से ही धर्मध्यान मानती है-: धर्ममप्रमत्तसंयतस्य'-धर्म ध्यान अप्रमत्त संयत को ही होता है तथा जिसके कपाय उपशांत एवं क्षीण हो गए हों वही धर्मध्यान का अधिकारी हो सकता है।
शुक्लध्यान का स्वरूप ध्यान की यह परम उज्ज्वल निर्मल दशा है। मन से जब विषय-कपाय दूर हो जाते हैं, तो उसकी मलिनता अपने आप घट जाती है। मन उज्ज्वल होते-होते-जव शुभ्र वस्त्र की भांति सर्वथा मल रहित हो जाता है तो वह मन शुगलता को-अर्थात् निर्मलता को प्राप्त कर लेता है । उस निर्मल मन . को एकाग्रता एवं अत्यन्त स्थिरता ही शुक्लध्यान कहलाती है। आचार्यों ने शुक्लध्यान की दशा का वर्णन करते हुए बताया है-जिस ध्यान में. बाघ विषयों का सम्बन्ध होने पर भी मन उनकी ओर नहीं जाता तथा पूर्ण वैराग्य दशा में रमता रहता है। इस ध्यान की स्थिति में यदि कोई साधक के शरीर पर प्रहार करे, इंदन भेदन करे तब भी उनके नित्त में संस्लेश पैदा नहीं होता, शरीर को पीड़ा होते हुए भी उन पीड़ा की अनुभूति मन को स्पर्ग नहीं कर सस्तो। भयंकर से भयंकर वेदना व उपसर्ग भी मन को चंचल नहीं बना सरने । साधा का चितन बाहर से भीतर की ओर चला जाता है, देह होते हुए नो वह स्वयं को विदेह बा देहमुक्त ना अनुमा . करने लगता है।
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१ तथा मुत्र ३१३३.३८